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दानशासनम्
आदि कषायोंसे युक्त रहते हैं, साधुजनोंको गाली देते हैं, और अपने धर्माबांधवोंको कष्ट देते हैं। ऐसे दुष्ट जहां रहते हैं उनका सहवास पवित्र गुणोंको धारण करनेवाले जिनभक्त कभी न करें ॥ २ ॥
जीवानां भावभेदाः स्युः स्वादुवच्च कषायवत् । तिक्तवत्कटुवत्केचित्केचित्कटुवदम्लवत् ॥ ३ ॥ रसानामिह सर्वेषामेको द्वौ वा यथा त्रयः ।
चत्वार इव पंचेव षडूसा इव भूतले ॥ ४ ॥ अर्थ--जीवोंके परिणाम अनेक प्रकारके होते हैं। जिस प्रकार रसोंके भेद स्वादु, कषाय, तीखा, कटु, लवण, अम्लके रूपमें होते हैं उसी प्रकार जीवके परिणामोंमें भी अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं ॥ ३ - ४ ॥
यथा स्निन्धी यथा रूक्षो यथा शीतो यथोष्णकः ।
गुरुवल्लघुवत्केचिन्मृदुवत्खरवत्सदा ॥ ५॥ अर्थ-किसीका परिणाम स्निग्ध रहता है, किसीका रूक्ष राता है, किसीका शीत तो किसीका उष्ण, और किसीका गुरु तो किसीका लघु रहता है । और किसीका मृदु परिणाम रहता है और किसीका कर्कश परिणाम रहता है अर्थात् आठ प्रकारके स्पोंके समान जीवोंके परिणाम भी होते हैं ॥ ५॥
सेव्यं बालयुवाल्पमध्यफलमेवा!चित कार्कटं । वृद्धं चेदहिरद्य विक्षिपति यत्तद्वच्च केचिज्जनाः ॥ सेव्यं वृद्धमिवाद्य संस्कृतिवशात्केचिच्च कूष्मांडिकं । बालं यद्विषवद्वदति भिषजः सेव्यं न संस्कारतः ॥ ६॥
अर्थ-ककडी बिलकुल कोमल, थोडा कठोर तथा कोमलकठोर ऐसी अवस्थाओमें भी सेव्य है। परंतु जब वह पूर्ण कठोर होती है तब उसे कोई भी मनुष्य नहीं खाता है । उसी तरह कितनेक मनुष्य, बाल,