________________
२१४
হলালন
-
-
उपदिष्ट तत्वोंके अनुकूल प्रवर्तन करने की तैयारी उसमें होनी चाहिये, प्रस्थानको लेकर पुरप्रवेश तक सावधिक दीक्षासे दीक्षित होना चाहिये । ___ कहा भी है---
रोगे विदेशगमने जिनोत्सवे धर्मकार्यकरणेषु । रणराजांगणगमने सुजनोऽवधिदीक्षितोऽत्र भवितव्यः ।।
रोगकी हालतमें, विदेशप्रयाणमें, जिनोत्सवके प्रारंभमें, धर्मकार्यके प्रारंभमें, युद्धको जाते समय, राजमहलको जाते समय, सज्जन को उचित है कि वह उस कार्यकी पूर्ति होने तक कुछ न कुछ नियम व्रत आदि लेवें। अपने स्वामी, गुरु, विद्वान् धार्मिकजनोंकी सेवा करने योग्य एवं पुण्यसाधक परिग्रहोंके संरक्षण करने योग्य अर्थको उपार्जन करनेके लिए मनुष्यको उद्योग करना चाहिये । व्यापारादिक कार्यमें जाते समय दुर्धर उपसर्ग करनेवाले चोर दुष्ट मृग सादिकके द्वारा कोई आपत्ति आवे तो उसे निराकरण करने के लिए उसे समर्थ रहना चाहिये । आवश्यकता पडे तो राजा व उनके भृत्योंको धनादि दानसे परितुष्ट करें और लोगोंको संतुष्ट करनेवाले वचनोंको बोले, अपने लिए व्यापार करने योग्य नगरमें प्रविष्ट होकर अपने हृदयमें अत्यंत दयारसप्रपूरित भावनाओंको रखते हुए सर्व व्यवहारिक जनोंके साथ अनुकूल प्रवृत्ति से व्यवहार करें। विविध विषयोंको ध्यानमें लेकर द्रव्योपार्जनकी वृत्तिमें दूरदर्शितासे काम लेवें । जिस पदार्थके लेनेसे कोई प्रकारकी हानि नहीं हो ऐसे पदार्थीका संग्रह करें। अपने वचन को दृढ़ता से साधन करें। लोकव्यवहारको देखें। ऐसे निर्दोष व्यवहारसे जो व्यापार करता है उसका धन पात्रोंको दान देने योग्य है । क्यों कि वह वैश्य स्वतः साधुजनोंके समान वृत्ति रखकर धनार्जन करता है, वही हितकर है । वही उत्तमदाता कहलाता है ॥ ९९ ॥ ..