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. . दानशासनम्
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तुर लोग भोगकी इच्छा करते हैं उसे मनाने की कोशिस करते हैं। वह स्त्री यदि न माने तो धन का लोभ देकर मनाते हैं। यदि उससे भी नहीं माने तो अपवाद लगाने का भय दिखाकर उसको मनाते हैं। यदि उस के ऊपर अपवाद लगने से उसे पति मार डालेगा इस का भय रहता है, इसलिए उसे विवश होकर मानना पडता है । इस लिए अपने शील की रक्षा करने की इच्छा रखनेवाली स्त्रियोंको घर में अकेली न रहनी चाहिए ॥ १३४ ॥
नानग्नेरगदाशनं सुखकरं वातोऽनलं भस्मनि । वा नोद्भावयतीव चोपरभुवीवोप्तं सुबजि सदा॥ वंध्या कुक्षितले सुतं न जनयेज्जीवोऽयवान् सदचो । गृह्णातीह स कश्चिदिच्छति धरा च्छायानिलांभोगुणान् ।। अर्थ-जिसको अग्निमांद्य हो गया है उसे भोजन व औषधि दोनों सुखकर प्रतीत नहीं होते, राखके अंदर हवा अग्निको उत्पन्न नहीं कर सकता है । ऊसर भूमिमें बोया हुआ बीज अंकुरोत्पत्ति नहीं कर सकती है । वंध्याके गर्भमें संतानोत्पत्ति नहीं हो सकती इसी प्रकार पापीके हृदयमें गुरुवोंके द्वारा उपदिष्ट धर्मवचन स्थान नहीं पासकते । परंतु जिस प्रकार पृथ्वी जलवायु छायाके गुणको चाहती है उसी प्रकार कोई कोई भव्य गुरूपदेशको सुननेकी इच्छा करते हैं ।।१३५॥
चौर्य शूलारोहणं सत्सहायो मंत्रः स्वर्गो देवतानां गतिश्च । कर्तुः पीडा सदृशोऽतो बभूवुः शुद्ध कार्ये काललब्धिः प्रधान ॥
अर्थ---इस संसारमें चोरी करना, शूलमें चढना, सज्जनोंकी सहायता मिलना, मंत्रवादमें अपनी गति होना, स्वर्गलोकमें जाना, मनुष्यलोकमें देवताओंका आमा, मंत्रवाद करनेवाले को स्वयं बाधा होना, सम्यग्दृष्टि होना इन सब अच्छे बुरे कार्योंके लिए मुख्यतासे काललब्धि