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पात्रभेदाधिकारः
अर्थ - श्रीजिनेंद्र भगवंत, जिनगुरु व जैनसंघमें जिस भन्यकी भक्ति अचल है, सदा उनकी सेवा करता रहता है, अन्यत्र चित्त लगाता नहीं उसे महर्षि समयी कहते हैं ॥ ११२ ॥
साधक.
जिनबिंबे जिनगेहे जिनागमे जिनबले च यो विद्वान् ॥ वितव्ययं च कुरुते स साधको मुक्तिसाधकैरुक्तः ॥ ११३
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अर्थ — जो धर्मात्मा विद्वान् जिनबिंब आदि निर्माण कराने में, जिन चैत्यालय आदिके करानेमें, जैनशास्त्रोंके प्रचार में, जैनसंघको उपकार कराने में, एवं जिनप्रतिष्ठा आदि उत्सव करने में अपना न्यायो - पार्जित वित्तका उपयोग करता है वह मोक्षको साधन करता है इसलिए मोक्षसाधक महर्षि उसे साधक कहते हैं ॥ ११३॥
जैनानां यो भिषग्व्याधिं निवारयति भेषजैः ॥ दद्यात्तस्येष्टवस्तूनि ततः स्याद्धर्मवर्द्धनम् ॥ ११४ ॥
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अर्थ- जो वैद्य जैन संघ के रोगियोंको औषधि देकर रोगनिवृत्ति करता है उसे उसके इष्ट पदार्थोंको देकर सत्कार करना चाहिए | उस से धर्मकी वृद्धि होती है । धर्मात्माओंका स्वास्थ्य सदा धर्मके स्वास्थ्य की भी वृद्धि करता है ॥ ११४ ॥
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सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे सुलग्नेऽयुत्सवद्वयं ॥ यःकारयति दैवज्ञस्तस्मै दद्यान्मनीषितं ॥ ११५ ॥
अर्थ – जो योग्य मुहूर्त, नक्षत्र व लग्नमें धर्म व धर्मात्माओं का उत्सव निर्विघ्नतया कराते हैं ऐसे ज्योतिषियोंका भी योग्य सन्मान करना चाहिये ॥ ११५ ॥
भूतप्रेतपिशाचादिग्रहपीडानिवारकः ॥ .
तस्येष्टवस्तुदातुः स्यादारोग्यसुखसंपदः ॥ ११६ ॥