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दानफलविचार
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चिरकाल तक रहता है । जिस प्रकार गीला चना मट्टीमें पङकर एकदम नष्ट होता है, उसी प्रकार आहार जीर्णताको प्राप्त होता है । परंतु उत्पन्न अंकुर नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार आदर तो नष्ट नहीं हो सकता है। भावशुद्धिके द्वारा दिया हुआ आहार अपने आत्माके लिए हितकर अंतरंग रत्नत्रयादिकको उत्पन्न करनेमें सहायक होता है व बहिरंग ऐश्वर्यादि विभूति को उत्पन्न करने में साधक होता है । इसलिए बहुत आदरके साथ प्रतिदिन आहारदान देते हैं वे अनुपम पुण्यराशिको संचित करते हैं ॥ ६८ ॥
आधारं त्वमृतं वदंति मुधियः पीतस्स सद्धर्मवदोषान्हंति सुखं करोति दहने क्षिप्तः समस्तं दहेत् ॥
धर्मस्तद्वदयं त्वनेन मनसा पुण्येऽर्पितः पुण्यदः । - पापे पाप उशंति नाविकमनो वाद्धौ यथा वर्तते ॥६९॥
अर्थ-- बुद्धिमान् लोग घृतको अमृतके नामसे कहते हैं । यदि उसे कोई पी तो सद्धर्मके समान शरीरके समस्त दोषोंका नाश करता है । यदि अग्निमें डाल दिया तो सबको जला भी देता है। इसी प्रकार इम धर्मको भी इस मनके द्वारा पुण्यकार्यमें उपयोग टगाया तो पुण्यार्जन होता है, पापकार्यमें उपयोग किया तो पापार्जन होता है, जिसप्रकार समुद्रमें जहाजको डुबाना या तारना यह नासिकके मनके भाधीन है अर्थात् वह अपने मनोविचारके अनुसार कर सकता है इसीप्रकार यह मनुष्य अपने मनकी भावनाके अनुसार पुण्य व पापका अर्जन करता है॥ ६९॥
दानमाहात्म्य दानं ख्यातिकरं सदा हितकरं संसारसौख्याकरं । नृणां प्रीतिकरं लसद्गुणकरं लक्ष्मीकरं किंकरं ॥ स्वर्गावासकरं गतिक्षयकरं निर्वाणसंपत्करं । वर्णायुर्बलबुद्धिवर्धनकरं दानं प्रदेयं बुधैः ॥ ७० ॥