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दोनफलविचार
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एका साश्रुरहं वचस्यघवती मायाविनी चिंतिता। गेहं शून्यमिदं वपुः स्वहृदयं क्लिश्नाति लुब्धांगना ॥१६१॥ - अर्थ-और कोई स्त्री इस प्रकार बहाना करती है कि मेरे पति गाम में नहीं हैं, पुत्र भी नहीं है, मेरे लिए सहायता करनेवाले दूसरे कोई भी नहीं है, घरमें कुछ भी सामान नहीं है, मेरे हाथमें पैसा नहीं, यहां कोई उधार देनेवाला भी नहीं है, पात्रके आनेपर यहांपर कोई नहीं है, हा ! मेरा दुर्दैव ! इस प्रकार कहती हुई मायाचारसे लोभी स्त्री अपने हृदय में संक्लेश परिणामको करती हुई रोती है। उसका हृदय व शरीर सब कुछ शून्य है ॥ १६१ ॥
पात्रानादरफल गृहागतं च यत्पात्रं यस्तिरस्कुरुते यदा ।
आजन्मत्रितयं तेन दुःखमेवानुभूयते ॥ १६२ ॥ अर्थ-घरपर आये हुए पात्रका जो तिरस्कार करता है, वह तीन जन्मतक तीव्र दुःखका अनुभव करता है ॥ १६२ ॥
गर्भिणी अनादर करें तो गृहागतं पात्रमवेक्ष्य गर्भिणी । नाद्य स्ववारो घटते न निष्ठुरात् ॥ तस्मिन्गते स्यात्स सुतो दिवन्पना ।
जन्यत्रये दुःखमिहानुभूयते ॥ १६३ ॥ अर्थ-घरपर आये हुए पात्रको देखकर गर्भिणीको हर्ष. होना चाहिये । उसे विचार करना चाहिये कि मेरे व गर्भस्थ बालकके शुभचिह्नके रूपमें ये मुनिराज आये हैं। ऐसा न कर जो गर्भिणी उन ऋषियोंका तिरस्कार करती है, उसका बालक असंज्ञी, अंधा, पांगला, बहरा आदि होकर उत्पन्न होता है । वह स्वतः तीन जन्मसक दुःख अमुभर करती है ॥ १६३॥ .