SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् अर्ध-अन्नदान सव्यार्धानदात्री या पात्रेभ्यः सा तु निर्धना । इहालाभा व्याधिता वा क्लिष्टचित्ता परत्र च ॥ १६४ ॥ अर्थ-घरमें भरपूर आहारद्रव्य व धनके होते हुए भी जो स्त्री साधुओंको अर्ध पेट ही आहार खिलाकर भेजती है, वह इस भवमें ही दरिद्री हो जाती है, उसको प्राप्त होनेवाले लाभ नहीं मिलते । अनेक प्रकार के रोगोंसे पीडित होती है, परभवमें भी अनेक दुःखोंको भोगती है ॥ १६४ ॥ क्रोधदत्ताहार स्वकीयचंधून्परितर्य वाग्भिः पात्रस्य तृप्तिं च न कुर्वते ये । क्लिष्टाशयाःस्यु सततं दरिद्राः क्रोधेन काचिन्नरकं प्रयाता ॥ अर्थ-अपने बंधुवोंको उत्तम वचन व आहारादिकसे, एवं साधुवोंको मृदुवचन व आहारोंसे जो तृप्त नहीं करते हैं वे हमेशा दुःखी व दरिद्री ही रहते हैं । क्रोधसे किये हुए किसी भी कार्यका फल अच्छा नहीं हुआ करता है, पात्रके प्रति क्रोध करनेसे एक स्त्री नरकको गई है ॥ १६५ ॥ क्रोधेनोपकृतं च कार्यमखिलं व्यर्थ यथा जायते । क्षेत्रे भृष्समुप्तवीजनिकरः संपद्यते नो यथा ॥ जैनद्वेषकृतं च दानमपि सक्ष्वेडा यथा शर्करा ॥ कारुण्याईमनःकृतं च सकलं सार्थ भवेच्छाश्वतम् ॥१६६॥ अर्थ-हे भव्य ! जिसरकार जलेहुए बीजको खेतमे बोनेसे उसका कोई उपयोग नहीं हुआ करता है, उसी प्रकार क्रोधसे यदि पात्रके लिये उपकार किया जाय तो वह सर्व व्यर्थ होता है, जिसप्रकार शक्कर में विष मिलाकर खिलाया जाय तो वह प्राणको हरण करता है
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy