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दानशासनम्
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हैं, उनको अमेक प्रकारसे + गालियां देते हैं, कोई दुष्टपुरुषोंको नमस्कार करते हैं, एवं उनकी प्रशंसा करते हुए स्वयं उनको धन देते हैं । लोकमें दो प्रकारके मनुष्य होते हैं । एक तो सदा पुण्यका अर्जन करते हैं । पुण्यमय कार्योको करते हैं । पापकार्योसे उपेक्षा करते हैं । कोई सदा पापक्रिया करते हुए पापार्जन ही करते हैं । जिस प्रकार जीने की इच्छा रखनेवाले औषधको व मरने की इच्छा रखनेवाले विषको पीते हैं, इसी प्रकार लोकमें पुण्यार्जन व पापार्जन करते हैं ॥ १७५ ॥
मिथ्यादृष्टियोंको दानदेनका फल मिथ्याशे ये ददतेऽथ दानं शुद्धाश्च जैनाः सुदृशोऽपि तेषां । यक्षा हरंति श्रियमर्थमन्ये दृग्बोधवृत्तानि लयं प्रयोति ॥१७६॥
अर्थ-शुद्धसम्यग्दृष्टि जैन दाता मिथ्यादृष्टियोंको पुण्यार्जनके निमित्त यदि दान देते हों तो उनकी संपत्ति आदिको यक्ष अपहरण करते हैं एवं दूसरे भी उनके द्रव्यको अपहरण करते हैं । उनके रत्नत्रय भी नष्ट होते हैं ॥ १७६॥
स्वस्वाम्यरिभटेभ्योऽर्थ यो दत्ते स्वामिना स च । हतो बद्धो दण्डितो वा, स्वामिद्रोहीत्युशंति तम् ॥१७७॥ अर्थ--जो व्यक्ति अपने स्वामीके शत्रुवोंको धनादिक देकर मदत करता है वह उसके स्वामीके द्वारा मारा जाता है, बद्ध होता है, एवं लोकमें उसे स्वामिद्रोही कहते हैं । इसी प्रकार जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टियोंको धनादिक देकर मदत करता है वह आत्मद्रोह करता है ॥१७७॥
भयप्रदत्त-दान देहि देहि न मुंचेऽहं वदतां दानिनो जनाः । बाळरुग्बलिदातार इह भांति महीतले ॥ १७८ ॥
+ शपनं जीवितं हंति ज्ञानं पुण्यं श्रियं धियं । करोति मूकतां मांद्यं नीचर्गोत्रं च दुर्गतिम् ।।