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दानशासनम्
अर्थ – हे जीव ! धर्मप्रभावनाकी इच्छासे सदाकाल तू गर्व छोड, राजा के समान देव की सेवा कर, मंत्रि के समान गुरु की सेवा करो, सेना के समान संघ की रक्षा कर, इसके विरुद्ध व्यवहार गत कर, वै साया, वितण्डावाद मत कर, जिससे पाप न हो ऐसे वचन उच्चारण कर, सब प्राणियों पर दया और सज्जनोंपर भक्ति रखो ॥६४॥
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कर्मभावं रचयति कतिचित्तं निरीक्ष्येषयाद्यं । केचित्संशुद्धभावेन च सुकृतचयं प्राप्नुवत्युद्धदृष्ट्या ॥ पूर्ण पद्माकरं तं बहुसतृषनो वीक्ष्य श्रांतः श्रमः को। मीनासक्ताशयः स्याद्विगतघनरसं वांछतीवांहसः कः ६५ अर्थ — कोई धर्मप्रभावना करता है। कोई उसे ईर्षाभाव से देखकर पापको प्राप्त करता है, कोई शुद्ध भावसे उसे देखकर पुण्यसंचय करते हैं एवं स्वर्गादिसंपत्तिको प्राप्त करते हैं । संसारमें देखा जाता है कि कोई बहुत प्यासा व्यक्ति तालाब में पानी भरा हुआ देखकर प्रसन्न होता है | मछली पकड़नेवाला वीवर तालावका पानी सूखनेपर आनंद मानता है । इस लिये भिन्न २ भावोंसे भिन्न २ प्रकारके पापपुण्यों को यह मनुष्य अर्जन करता है ||६५||
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स्थित्वा गत्वागत्य ये चैत्यगेहे, वर्तते ते स्वल्पलाभेच्छयैव । संस्थायास्थित्यैव मुक्त्वा गती द्वे, मूढाः पुण्यं नैव किंचिल्लभते ॥ ६६ ॥
अर्थ -- जो जिनालय में जाकर कभी बैठते हैं कभी इधर उधर उठकर जाते हैं । फिर आकर बैठते हैं वे लोग जिनालय में जाकर भी विशेष लाभ नहीं लेना चाहते हैं । स्थिर चित्त से एक जगह बेट
१ दूराध्वगा राजभृत्या जिनपूजादिदृक्षवः । राजभोगोचिताः कांताः स्वल्पाहाराः प्रकीर्तिताः ॥