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चतुर्विधदाननिरूपण
कर जिनपूजाविधि को देखने वाले बहुत कम हैं, इस प्रकार अज्ञानीजन पुण्यसंचय नहीं करते हैं ॥ ६६ ॥
केचिद्ध्नंनि जिनोत्सव कुमतयोऽप्यस्मान्न श्रृण्वयंतिष्ठतोऽत्र स तत्स्मयेन किल भी कुर्वन्महांतो वयम् । स्थानीये भवने वृष वपुषि यो वैषम्यवृत्तिर्भवेत् ।
तत्कालादुपरि प्रणश्यति कृतं दानं च तत्तत्सतत् (१)॥६७ - अर्थ-कोई २ दुर्बुद्धी मनुष्य अहंकार के वश ऐसा सम्झने लगते हैं कि हम इतने बड़े आदमी होते हुए भी इस जिनपूजोत्सव. को करानेवाले व्याक्ति हमसे इस उत्सवको कराने के लिये पूछा नहीं। इस लिए इसके कार्य में विघ्न डालेंगे ऐसे दुराशय से नगरमें, घरमें धर्मकार्य में, उस के शरीरमें इत्यादि अनेक स्थानों में उस श्रावकसे वैरकर उस के उत्सव में विघ्न डालने का प्रयत्न करते हैं वे पापी हैं। उस के सर्व पुण्य नष्ट होते हैं ॥६७॥
एके वित्तपतीनवेक्ष्य दुरित पुष्टिं वहत्यन्वह स्वेके दीनतयाशनं च वसनं चित्तं सदा याचितुं । एके श्रावकमानस कलुषयंत्येके शयानाः परं
चैके श्रीजिनबिंबदत्तमनसः पुण्यं लभते ध्रुवं ॥६८॥ अर्थ--जिनालयमें पूजोत्सबके निमित्त गये हुए मनुष्योमें कितने हो श्रीमंतोंको प्रसन्न करनेकेलिये पापको कमानेमें संतुष्ट होते हैं, और कोई दीनतासे भोजन, वस्त्र, धन इत्यादिको मांगनेके लिये तत्पर रहते हैं, और कोई श्रावकोंके चित्तको कलुषित करने में तत्पर रहते हैं, एवं कोई प्रमादसे सोते रहते हैं। परंतु ऐसे भी कुछ लोग रहते हैं जो जिनबिंबकी ओर ही अपना मन लगाकर बैठते हैं वे नियमसे पुण्यसंपादन करते हैं ॥ ६८ ॥