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चतुर्विधदाननिरूपण
जुगुप्सा इत्यादिकोंकेद्वारा साधुवोंके चित्तमें विकार उत्पन्न करते हों वे जिसप्रकार वर्षाकालमें सूर्य बादलोंसे घिरा रहता हैं उसी प्रकार स्थिर पापोंसे घिरे रहते हैं ॥ ६१ ॥
कंदः पंकेंऽभसोऽधो वसति पुनरसौ यस्य दण्डस्तदूर्वे । पुष्पं पंकेरुहस्येव च सुकृतिजनो भाति पुण्यांबुनाशात् ॥ तानुवृत्याशु खादत्यपि जगति यथा जंतवो बीजपुण्या
नुन्मूल्यामूलमेते बहुदुरितजुषोऽदंत्ययरिता वै ॥६२॥ अर्थ-कमलका कंद कीचडमें रहता है, कमलनाल पानीके अंदर रहता है एवं पुष्प पानीके ऊपर रहता है। इसी प्रकार पुण्यवान् सज्जनोंकी वृत्ति है । जिस समय उस तालाबका पानी सूख जाता है उस समय उस कमलकंदको उखाडकर दुष्टलोग उमे खाते हैं इसीप्रकार जिस समय पुण्यात्मावोंका पुण्यजल क्षीण क्षीण होजाता है उस समय दुष्ट लोग उनको जडसे उखाडनेके लिये प्रयत्न करते हैं। उनके सुखका नाश करते हैं, ऐसे लोग इस संसारमें घोर पापका बंध करते हैं ॥ ६२॥
धर्मातरायेण कृतेन विघ्नं दृष्ट्वाधिगम्यैव मुनीश्वरैःके।
जैना बभूवुः सुदृशो विशुद्धा मुक्तिं गताःश्रेणिकवत्प्रयांति ॥ अर्थ-बडे २ मुनियोंके साथ जिन्होने द्रोह किया, उपसर्ग किया या धर्ममार्ग में अंतराय किया ऐसे बहुतसे लोग पीछे उसका पश्चात्ताप होनेपर जैनी होगये, सम्यग्दष्टि होकर मुक्ति गये, एवं श्रेणिकके समान जायेंग भी ॥ ६३ ॥
गर्व संत्यज संभजस्व नृपवदेवं गुरुं मंत्रिवसंघ तलवद्विरुद्धचरितं त्वं जीव भो मा कुरु । वैरं वंचनदुर्विवादमनघं त्यक्त्वैव वाक्यं वद । कारुण्यं कुरु भक्तिमेव विलसद्धर्मेच्छयवान्वहं ॥ ६४ ॥