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दानशासनम्
योग्य द्रव्यको मिध्यादृष्टियोंको प्रदान करना अनुचित है - ॥१९॥ आहूय जैनान्बहिरालयेषु ये भोजयंत्येव त एव सर्वे । . पापं लभते न विशंत्ययास्तन्नोदासयेयुः कृतिनोऽपि जैनाः ॥१९५॥
अर्थ-अपने घरपर जैनियोंको बुलाकर जो उनको बाहरके सामान्य घरपर भोजन कराते हैं वे पापार्जन करते हैं। पुण्यका नाश करते हैं । पुण्यात्मा सज्जन जैनियोंकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥१९५॥
अशिक्षितकुदृग्भ्यो ये दानानि ददते नराः । महारण्ये भवेयुस्ते मदोन्मत्ता मतंगजाः ॥ १९६ ॥ अर्थ-जो सज्जन अशिक्षित व मिथ्यादृष्टियोंको दान देते हैं वे उस दानके फलसे बडे भारी जंगलमें मदोन्मत्त हाथी होकर उत्पन होते हैं ॥ १९६ ॥
नो दद्यादपकारिणे च रिपवे धर्मद्विषे भीकृते । भृत्येभ्यः परिहासकाय यशसे भूपाय संगीतिने । नृत्ताया अपि विनोदकाय गणिकालोकाय दुर्वृत्तये । गोवृत्ताय खलाय धार्मिकजनो नैनं धनं धर्मतः ॥१९७॥ अर्थ-धार्मिक जनाको उचित है कि वे धर्मबुद्धिसे अपकारी, शत्रु, धर्मद्वेषी, भयंकर, भृत्य, हास्यकार, स्तुतिपाठक, गजा, गायक, नर्तक, विनोदक, वेश्याजन, दुराचरणी, दुष्ट आदियोंको अपने धनको न देवें । अर्थात् धर्मबुद्धिसे इनको धन देना वह पाप संचयके लिए कारण है ॥ १९७ ॥
x जैनमुक्तिगृहाद्भित्त्यन्तरगेहेषु भोजयेत् । शयनं च न कर्तव्यं कर्तव्यं सद्भिरेव वा ॥ ग्रहदुःस्वप्नचोराद्यैरसतीनां घोषणे यदि ।। अपवादो भवेन्नृणां न स्वदन्यमंदिरम् ।।