________________
दानफलविचार
२५१
अमुक स्त्री की दान देनेकी इच्छा नहीं है" ऐसा कहकर दान देनेसे रोकता है, वह पापी व्यक्ति व वे जन्म जन्ममें दरिद्र होकर उत्पन होते हैं ॥ १९१ ॥
या स्त्री मृतेशा सकला यदाता पौराः कषतीह तदैव येन । सहश्चरित्रं च यदा विनष्टं कर्माणि देवाश्च जनास्तदा तं ॥
अर्थ-कोई स्त्री मृतपति अर्थात् विधवा होती है तो उसे पुरवासीजन यदि दुःख देंगे तो उन पुरुषोंने अपने सम्यग्दर्शन व चारित्र को नष्ट किया तथा उसके फलसे उनको पापकर्म, शासनदेवतायें व मनुष्य उनको मारते हैं अर्थात् उनकी अनेक प्रकारसे हानि करते हैं ॥१९२॥
भोक्तुं प्रार्थितभुक्ति संस्थितं तद्गृहमागतं ।
तस्य दानांतरायः स्याद्यः पुमांश्च विहापयेत् ॥ १९३ ॥ अर्थ-यदि कोई भोजनके लिए बैठा हो, या भोजनके लिए निमंत्रण पाया हो तो उसको निवारण करनेवाले स्त्री-पुरुषोंको घोर अंतरायकर्मका बंध होता है ॥ १९३ ॥
कार्याय बद्धमशनं कुदृशे जनाय । नीचाय तंडुलपटिं दययैव दद्यात् ।। जैन विनात्मनिलये शयनं च भुक्ति ।
नो कारयेदिव फलानि च विक्रयतः ॥ १९४ ॥ अर्थ-अपने कार्यके निमित्तसे किसी मिथ्यादृष्टिको भोजन बंधा हो, एवं किसी नीचको चावल या धान्यकी वारी बंधी हो तो उनको दयाके भावसे ही देना चाहिये । अर्थात् पात्र समझ कर नहीं देना चाहिये । जैन कुलोत्पन्नको छोडकर अपने धरमें दूसरोंको भोजन कराना व शयन कराना ठीक नहीं है । बीज के लिए रखे हुए फलका विक्रय करना जिस प्रकार अनुचित है, उसी प्रकार सत्पात्रोंके दान के