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दानशासनम्
पत्ये या शयिता तदात्त्रसरसालापानुरक्तांगना- । न्येषां वक्त्रमवीक्ष्य वाचमनिशम्यैवान्वहं वर्तते ॥ तद्वत्साधुजनो वदेदयकरं यो देवताराधना- ।
शेषस्तोत्रजपान्करोति सफलं प्राप्नोति चेष्टं समं ॥३४॥ अर्थ-जो पतिव्रता स्त्री अपने पतिको संतुष्ट करनेकेलिये उसके साथ अनेक प्रकारसे सरस वार्तालाप करती है व प्रेमव्यवहार करती है वही दूसरे मनुष्य सामने आयें तों आंख उठाकर भी नहीं देखती
और दूसरोंके वचनको भी नहीं सुनती, इसीप्रकार धर्मात्मा सज्जन पुरुष सदा अपने आत्माके हितके लिये पुण्यरूप वचनको ही बोलते हैं एवं जप, स्तोत्र, जिनेंद्रपूजा आदि कार्य अत्यंत तल्लीन होकर करते हैं, उनको सर्व प्रकारके इष्ट फल प्राप्त होते हैं ॥ ३४ ॥
जिनोक्तिरेव वक्तव्या वक्तव्या नेतरोक्तयः ।
तच्छिष्टवाक्कृतिौनं न मौनं पशुवत्परम् ॥ ३५ ॥ ___ अर्थ-वीतराग परमात्मा जिनेंद्र भगवंत के द्वारा प्रतिपादित वचन अर्थात् शास्त्र ही बोलने व सुनने योग्य है। मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा रचित शास्त्र न कथन करने योग्य है और न सुनने योग्य है । शिष्टोंके वचनको स्मरण करते रहना वह असली मौन है। बाकी नहीं बोलनेपर भी वित्तमें दुश्चिंतन करना वह पशुमौन है ॥ ३५ ॥ - जिह्वालोल्यमृषेर्नास्य वृप्तोऽयं दत्तवस्तुभिः ।
तपश्चापि तपोज्ञानं ज्ञानं शंसत्ययं जनः ॥ ३६॥ अर्थ-जो साधु या कोई संयमी मौनपूर्वक भोजन करते हैं, उनके संबंधमें श्रावकगण कहते हैं कि इस साधुको जिह्वाकी लोलु
~ पदानि यानि विद्यते वंदनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यते भणिना मौनकारिणा ॥