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दानशासनम्
कर अपने द्रव्यका सदुपयोग करें । परंतु खेद है कि कितने ही लोग पूर्वोपार्जित पुण्यसे प्राप्त द्रव्यके होनेपर भी ऐसे शुभकार्यमें उसका व्यय नहीं करते । परंतु पापोपार्जनमें सहायक ऐसे दुराचार, मुकद्दमेबाजी आदिमें व्यर्थ व्यय करते हैं ॥ २३ ॥
क्षेत्रादिसर्ववस्तूनां संस्कारं कुर्वते जनाः । __ तत्तदर्थ न कुर्वति तत्फलप्राप्तिहेतवे ॥ २४ ॥
अर्थ-धान्यादिककी उत्पत्तिकेलिये खेत आदिका संस्कार मनुष्य करते हैं । धनप्राप्तिकेलिये दुकान आदिका संस्कार करते हैं । परंतु खेद है कि सबका मूलबीज जो पुण्यधन है जिसके फलमें सर्व संपत्तिकी प्राप्ति है, उसके संस्कारके लिये कोई प्रयत्न नहीं करते ॥२४॥ आनंत्याद्यानुबंधि प्रथितममृदु निस्सारमुद्यत्कलौघं । दृष्टिध्नादभ्रपांस्वस्तमितमुदकसंयोगतो वृष्टितो वा ॥ शुष्यत्संशोषयिष्यन्निजतलभवसस्यानि सर्वाणि नित्यं । क्षेत्रं संस्कृत्य पात्रं फलमिव लभते कार्षिको धार्मिकत्वं ॥२५॥ ___ अर्थ-जैसे कृषकलोग क्षेत्रका अच्छी तरहसे संस्कार करते हैं अनंतर उसमें धान्य बोते हैं इससे धान्य ऊगकर अच्छा फललाभ उनको होता है । उसी तरह पात्रको आहारदान देनेवाला दाता भी क्षेत्रके समान है। वह भी प्रथम अपने को दान देने योग्य बनायेगा तभी पात्रादानसे उसको फललाभ होगा, अन्यथा नहीं । पात्राको आहार देनेवाला दाता प्रथमतः सम्पग्दर्शनके घातक ऐसे अनंतानुबंधि कषाय को अपने हृदयसे नष्ट कर देता है, तब उसके हृदयमें जो पूर्वकालमें मिथ्यात्वरूपी धान्य उगा था वह शुष्क होकर नष्ट होता है । नष्ट होनेसे वह दाता अपनेको व्रतादिकसे संस्कृत करता है अर्थात् संस्कृतक्षत्रके समान वह जब अपने को सम्यग्दर्शनवतादिकसे संस्कृत करता है, तब सत्पात्रको आहारदान देकर