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पात्रसेवाविधि
स्वर्गमोक्षादिकफलको प्राप्त कर सकता है। जैसे खेतमें जो तृण या अयोग्य धान्य ऊगा था वह नेत्रकी दर्शनशक्तिको विघात करनेवाली ऐसी आंधी के चलनेसे, खूब धूल आकाशमें उड जाती है और उसके साथ तृणादिक भी टूट फूटकर उड जाते हैं । अथवा जलवृष्टि न होनेसे तृणादिक शुष्क होजाते हैं और तदनंतर किसान लोग उसको निकालकर फेक देते हैं और कठिन क्षेत्रको हलके द्वारा धान्य बोनेके योग्य बनाते हैं । तब उसमें उनको फललाभ होता है। अभिप्राय यह है कि, मिथ्यात्वका त्याग करके सम्यग्दर्शन और व्रतादिक धारण करनेसे दाता सत्पात्रको आहारदान देनेके लायक हो जाता है ॥२५॥
मत समस्तै ऋषिभिर्यदाईतः।। प्रभामुरात्मावनदानशासनम् ॥ मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं ।
धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥२६॥ . - अर्थ-समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २६ ॥
इति पात्रसेवाविधिः।