________________
१३०
दानशासनम्
www
अर्थ-दूध में खटाई, अन्नमें विष, सोनेमें तांबा वगैरहके मिलाना जिसप्रकार दोषपूर्ण है, उसीप्रकार दासीके हाथसे दिलाया हुआ आहार दाताके लिये दोषकारक ही है ॥ १३ ॥
नीवभांडपक्वाहार दत्तं संकल्प्य नीचानां यैर्भाण्डैः पक्कमोदनम् । तैर्भाण्डैः पकमशनं न देयं यतये बुधैः ॥ १४॥ अर्थ--जिन बरतनोंमें चाण्डाल आदि नीच जातियोंको संकल्प करके भोजन पकाया जाता है उनमें पकाया हुआ अन्न मुनियोंको बुद्धिमानोंद्वारा नहीं देना चाहिये अर्थात् नीचोंके लिये भोजन पकानेके बरतनमें मुनियों के लिये आहार देने योग्य भोजन नहीं पकाना चाहिये ॥ १४ ॥
अवतिक पक्वाहार अतिकपकमन यो दत्ते तस्य पुण्य धनहानिः स्यात् । संस्कृतशालिक्षेत्रे क्षुधाभिजननस्य बीजवपनं वा ॥१५॥ अर्थ-अव्रतीके द्वारा पकाया हुआ अन्न जो दान देता है उसके पुण्य व धनका नाश होता है। जिसप्रकार धान के खेतको संस्कार कर उसमें राई बोचे तो कोई उपयोग नहीं है ॥ १५ ॥
सव्रताव्रत मिश्रण. सव्रताव्रतयोमिश्रे गंधागंधविमिश्रवत् ।
नीचोत्तमविमिश्रे स्यात् तप्ताज्यजलमिश्रवत् ॥१६॥ अर्थ--भोजनादिकमें अव्रती और व्रतियोंके मिश्र होने पर सुगंध दुर्गंधके मिश्रके समान हो जाता है। नीच और उत्तम पुरुषोंका मिश्रण तपे हुए घीमें पानीके मिश्रणके समान हेता है ॥ १६ ॥
कुलीननीचयोमिश्रे भुक्त्याद्यैः कुलनाशनम् । यथा स्याद्यतिनां भुक्तो मत्वा दोषाधिशोधयेत् ॥१७॥