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दानशासनम्
भिक्षां कर्तुं न विशेत्मविश्य तच्चत्वर मुहुर्दातॄन् ।
नो वीक्षेत च योगी सप्तोच्छासात्परं निवर्तेत ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस समय योगी आहारकेलिए श्रावकोंके घरपर जावे तो यदि उनके घरका दरवाजा बंद हो, बंद न होते हुए भी योगियोंके मार्गमें कोई रुकावट हो, घरके आंगनमें कोई धान्य वगैरेह बिछाये गये हों, हिंसक कुत्ता बिल्ली आदि प्राणियोंको सामने बांधा हो, बच्चों को छोडकर अन्य किसीका रोना सुननेमें आरहा हो, विवाद कठोर वचन सुनने में आरहा हो, घरके लोग हिंसादिक पापोंमें लगे हों, ऐसे घरमें भोजनके लिए प्रवेश न करें। यदि किसी तरह प्रवेश कर गये तो दाता को बार २ नहीं देखें । सात उच्छासके बाद वह लौटजावें ॥ ११ ॥ ४२ ॥
____ आहारगमनके समय दया व्याध्यांत योगिनं वीक्ष्य नोपेक्षेत कदाचन ।। स्वयिं परकीयं वा विदर्शनमथापि वा ॥ ४३ ॥ अर्थ-आहारको जाते समय यदि किसी रोगसे पीडित रोगी योगीको देखें, चाहे वह अपने संघका हो या अन्य संघका हो, चाहे अन्य दर्शनवाला ही हो तो भी ऐसे साधुवोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ॥ ४३ ॥
बालवृद्धतपःक्षीणान्सश्रमान्व्याधितानपि ।
मुनीनुपचरेन्नित्यं ते भवेयुस्तपःक्षमाः ॥ ४४ ॥ अर्थ-योगियों का कर्तव्य है कि वे बालयोगी, वृद्धयोगी, तपसे क्षीणयोगी, थके हुए योगी व रोगसे पीडित योगियोंको अंतर्बाह्योपचारसे संरक्षण करें। ऐसे वात्सल्यको धारण करनेवाले योगी ही उत्तम तपको धारण कर सकते हैं॥ ४४ ॥