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औषधदानविचार
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X भेषजदान फलोदयतः स्यात्सत्त्वपरः सकलामयदुरः । शंखरवींदुझषांकुशपद्माद्यक्षयलक्षणलक्षितगात्रः ॥ १४ ॥
अर्थ – औषध दानके फलसे यह मनुष्य समस्तरोगों से रहित होकर हृष्ट पुष्ट शक्तियुक्त शरीरको प्राप्त करता है । उसके शरीर में शंख, सूर्य, चंद्र, मत्स्य, अंकुश, कमल आदि उत्तम लक्षणोंके चिन्ह रहते हैं, वह भाग्यशाली होता है ॥ १४ ॥
पात्रनिंदासे रोग दूर नहीं होता है.
रोगो मुंचति भेषजोऽत्र भिषजा दत्तौषधैरेव सोऽ- I होजस्त्वगदैर्न मुंचति पुनर्दाना ईदर्चादिभिः || नो रुक्साधुजनव्यथामयकृतावज्ञाभवो मुंचते । गर्भिण्यावधिपतितैलविभवो तत्काललब्धीव सा ॥ १५ ॥
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अर्थ – संसारीजीवोंको योग्य वैद्यने औषध दिया तो उस औषधिसे वह रोग दूर होता है । यदि वह रोग पात्रदूषणादिसे उत्पन्न पापसे प्राप्त हो तो वह औषधप्रदानसे दूर नहीं होता है । और यदि पात्रदान, अईत्पूजादिकी अवज्ञासे एवं साधुजनों के रोगको देखकर भी तिरस्कार परिणामकर उत्पन्न हुआ हो तो वह औषधसे भी दूर नहीं होता है । जिस प्रकार गर्भिणीके द्वारा पीया हुआ तैल उसकी प्रसव
x चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायविनयो नयः । सर्वेऽपि विहितास्तेन दत्तं येनौषधं सतां ॥ १ ॥ सद्भैषज्य सुदानतः परभवे मुक्तस्त्रिपीडादितो । नीरोगश्चदुलानलोऽतिबलवान् क्ष्वेडादिबाधोज्झितः ॥ शंखाकेंदुझषांकुशांबुजमुखाद्यक्षूणलक्ष्मांकितः स्यात्सत्पुण्यभवप्रभावबलतो निर्मुक्तशत्रुः सदा ॥ २ ॥ * पात्रादिरोगमाकर्ण्य य उदासीन ईक्ष्यते ॥ न चिकित्सति तस्यापि रोगोऽसाध्यो भवे भवे ॥ १ ॥