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दानशासनम्
वेदनाको दूर करता है, इसी प्रकार काललब्धिके आनेपर ही वह रोग दूर होता है ॥ १५॥
दुष्टजन भूपे सेवकसकुलेऽत्र धनिके ग्रामप्रजाप्रेषके । चाकृष्टे धनहर्तरीह सशमास्तिष्टीत मौनान्विताः ॥ निर्षीजं विवदंति चोभयभवस्वात्मार्थपुण्यार्थिभि- ।
स्त्वाकोशंत्यतिदूषयंति कुदृशस्तान्पापवित्तार्थिनः॥ १६ ॥ अर्थ-इस कलिकालमें काष्ठांगारके समान मिथ्यात्वसे दूषित व्यक्ति पापसे द्रव्यार्जन करनेकी इच्छासे दुष्ट राजाने, सेवकोने, धनिकोने, गांवके प्रजासंरक्षकोने या चोरोने कोई धनका अपहरण किया या कोई गालियां दी तो कुछ भी प्रत्युत्तर न देकर शांति धारण कर मौनसे बैठे रहते हैं। परंतु उभयभवके हितको साधन कर देनेवाले अपने धर्मात्मा बंधुवों के साथ अकारण ही विवाद करते हैं । उनको गाली देते हैं । उनका दूषण करते हैं ॥ १६ ॥
श्रुत्वा ज्ञात्वा पुराणं प्रतिदिनमपि नः श्रेणिकादिप्रपंचं। . - यात्यात्मैकां गतिं वानृतमिदमखिलं काललब्धिप्रधान ।। धर्मः सर्वो वृथा स्यादिति विदितजना जैनवंधूनबीजं । घ्नंत्याक्रोशंति निंदति हि सकळधनं दंडयंत्याहरंति ॥१७॥
अर्थ-पापक्रिया करनेकी इच्छा रखनेवाले पापी गत्रिंदिन विचार किया करते हैं, प्रतिदिन पुराण व शास्त्रको सुनकर व जानकर भी श्रेणिकादि अपने कर्मके अनुसार किसी गतिमें गये अर्थात् नरकमें गये । इसलिए यह सब झूठा है । काललब्धि एक मात्र प्रधान है। धर्म वगैरह सर्व व्यर्थ है, ऐसा अपने अज्ञानसे समझकर व्यर्थ ही अकारण अपने हितैषी बंधुवों को कोसते हैं, मारते हैं, उनकी निंदा