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दामशासनम्
चाहिए। खाते वखत कांजी पीना चाहिये । भात आदि खाते समय, तत्र (छाच ) पीना योग्य है। घी आदि से बनी हुई चीजोंसे भोजन करते ये, या स्नेहपीते समय, उष्ण जलका अनुपान करलेना चाहिये । पट्टी से बने पदार्थोंको खाते हुए ठण्डा जल पीना उचित है । प्राणियों के हितकारक इस प्रकार के अनुपान का जो मनुष्य नित्य सेवन करता है वह नित्य सुखी होता है ॥ १२ ॥ *
औषधिदानफल.
दत्तं येन सुभेषजं विमलं पथ्यं गुरूणां सतां । मुक्तास्तेन गदास्ततोऽति विमलं चित्तं सुरत्नत्रयम् ॥ पूतं जातमखंडितं धृततपोध्यानं हतं दुष्कृतम् । लब्धं तेन समस्तमेव सहसा नित्यं सुखं लभ्यते ॥ १३॥
अर्थ - जिस पुण्यवान् दाताने साधुषोंको उनके रोग शरीर प्रकृति आदिको देखकर आहार के समय योग्य, पवित्र, पथ्यकर औषध दे दिया, उससे वे साधु रोग मुक्त होते हैं, इतना ही नहीं उनका चित्त निर्मल होता है, उससे रत्यत्रयकी विशुद्धि होती है, उससे अखंडित तप व ध्यानकी सिद्धि होती है । दुष्कृत अर्थात् पाप नष्ट होता है । पापके नष्ट होनेसे ध्यानकी सिद्धि होती है, उससे नित्य सुखको वे प्राप्त करते हैं । औषधदानके देनेवाले दाताके उस निर्मल दानसे उस पात्रको जब साक्षात् मोक्ष मिलता है तो फिर दाताको उत्तम फल क्यों नहीं मिलेगा ॥ १३ ॥
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टीप - इस प्रकरण के श्लोक नं. ८-९ उग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक
के २० वें अध्याय में १८ व १९ वें श्लोक हैं । उक्त कल्याणकारकके चौथे अध्याय १६ - १७ - १८ वें श्लोक हैं ।