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________________ चतुर्विधदाननिरूपण धर्मद्रव्यविषं हृतं प्रकुरुते ददह्यमानाळये | द्विड्भूपावृत भूपतेः पुरि यथोत्पातास्तदास्युश्च तान् ॥ १२२ अर्थ - - जो मनुष्य विषभक्षण करता है उसका सर्व शरीर, इंद्रिय, बुद्धि, चित्त आदि सर्व विषमय हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जिन मंदिरके धनरूपी विषको ग्रहण करता है वह मनुष्य पापके उदय से दुःखी होता है उस की अवस्था ऐसी होती है जैसा आग लगे हुए घर में फंसे हुआ मनुष्य की, अथवा शत्रुओंके द्वारा घेरा गया है राज्य जिस का ऐसे राजाके समान एवं अनेक प्रकार के संकट ऐसे पापी को उपस्थित होते हैं ॥ १२२ ॥ ६९ भित्वा देवपुरप्रविष्टजनमाहृत्य प्रसह्यापि ये । तेजोवबुधमान्यपौरमपि संगच्छति तेषां पुरं ॥ देशो नश्यति राट्स्वयं च बहुधोत्पातेन नाशं गतः । सर्वे वस्तु धनादिकं च विलयेन्निष्कारण दोषतः ॥ १२३ अर्थ - जो दुष्ट राजा जिनमंदिर इत्यादि देवस्थानोंको फोडकर उनके उन्नतिको सहन न कर उनके धन आदिको अपहरण करते हैं एवं उस नगर में रहनेवाले विद्वान्, वीर, वैद्य इत्यादि सज्जनोंको कष्ट देते हैं, उन दुष्ट राजावों का इस पापसे राज्य नष्ट होता है । राजा स्वयं अनेक प्रकारके उत्पातों से नाशको प्राप्त होता है, इतना ही नहीं उसके संपूर्ण ऐश्वर्य अकारण नष्ट होते हैं ॥ १२३ ॥ दत्वात्पार्थं धर्मव गृहीत्वा धान्याद्यर्थे लब्धुकामः कुटुंबी । अज्ञत्वात्मद्रव्यनाशात्क्षुधार्तो नेपालोस्थं बीजमश्ननिवोर्व्या ॥ अर्थ – जो व्यक्ति अल्पद्रव्य देकर मंदिर के ग्राम, खेत आदिको खरीदता है, क्योंकि उसे उन खेतों से धान्य इत्यादि मिलने की आशा है, परंतु वह यह नहीं जानता कि उसको लाभसे अधिक हानि होगी वह व्यक्ति मूर्ख है । भूख लगनेपर जेपालबाज (विष) को खानेवाला
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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