________________
दानफलविचार
२६७
अर्थ-देव व पात्रोंके लिए उपयोग में आनेवाले जितने पदार्थ घर में मौजूद हैं उन में से कुछ अंशको पहिले से दानमें देना चाहिए बाकी बचे हुए को अपने उपयोग में लेना चाहिए । उसे ऋषिगण प्रसाद कहते हैं ॥ २३८ ॥
____पुण्यात्माओंकी वृत्ति यत्राघुष्टं निशम्याप्यतिपटुवणिजो यत्र यत्रास्ति वित्तं । गत्वाहत्यापणं तत्सकलवसुचयं तत्र निक्षिप्य कृत्वा । शुल्कर्णप्रातिभावैट्तलवरनृपदायादिचोरादिकानां । चानम्योक्त्वा चटूक्तीरिदमखिलधनं जागरूकाश्च गुप्ताः ॥२३९॥ क्रीत्वार्थे द्वारमाश्रित्य च नमितकराः कांश्च मासांश्च नीत्वा । निर्वृद्धं किंच किंच प्रशमितमनसो दीनचाटुभवाचः । सर्वद्रव्यं गृहीत्वा व्यवहतिनिपुणाः स्वस्वगेहं गता ये । षण्मासाद्वत्सराद्वा तदुपरित इवाचिन्वते यं च जैनाः ॥ २४० ॥
अर्थ-किसी स्थान में कोई बडी यात्रा-उत्सव हो, वहांसे निमंत्रण मिले तो व्यापार कार्यमें कुशल वैश्य उसी दिनसे इधर उधर जाकर रुपये एकत्रितकर जहां जहां जो चीज उत्पन्न होती है उन को खरीदकर उस महोत्सवके स्थानमें दुकान लगाता है। वहांपर टेक्स लेने वाले, कर्ज देनेवाले, उधार लेनेवाले, कोतवाल, राजा, राजसेवक, दायाद, चोर आदियोंसे बहुत प्रेम से ब लता है, एवं अपने धन का संरक्षण करता है, और व्यापार करता है, तदनंतर कुछ समयतक वहां रहकर अपने व्यापार से द्रव्य कमाकर छह महीने में या वर्ष में अपने स्वदेश को पहुंचता है, उसी प्रकार की वृत्ति पुण्यधनको कमा नेवाले की होनी चाहिए । बहुत उपायसे सत्कार्योको करते हुए किसी के हृदय को न दुखाकर पुण्यका अर्जन करना चाहिए ॥२३९-४०॥