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दानफलविचार
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अर्थ-देव, गुरु, राजा व सत्पात्रोंको दिये हुए धनको दातालोग मनवचनकायसे ग्रहण न करें, जिसप्रकार अपने खेतमें बोये हुए बीजको यह प्रहण नहीं करता है ॥ २१६ ॥
आत्मीयमन्यदीयं स्वं दानं यः कुरुतेऽघदं । दातृत्वहानि कुर्यान ग्राह्यमन्यकलनवत् ॥ २१७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके द्रव्यको अपने द्रव्यके रूपमें संकल्पकर दान करता है वह पापके लिए कारण है । उससे दातृत्वको हानि होती है। परस्त्रीके समान परद्रव्यको भी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ २१७ ॥
देवगुरुसेवाफल दसं निंबूफलं राज्ञामुत्पाद्य करुणां हृदि।
दत्तं तैरधिकं वित्तं देवगुर्वोस्तथाधिकम् ॥ २१८ ॥ .. अर्थ- राजाके पास जाकर प्रतिनित्य निंबू फलको भेटमें देवें तो उसके द्वारा यह प्रसन्न होकर एवं हृदयमें करुणा धारण कर उस नौकरको अनेक संपत्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार देवगुरुवोंकी सेवा करनेपर, उनके प्रसादसे अनेक सुख संपत्ति मिलती है ॥२१८॥
स्वं स्वं देवाय संकल्प्य स्वयमेव व्ययत्यदः । स्वानर्थाय भवेत्कन्यादानवत्सोऽनरिः स्मरेत् ॥ २१९॥ अर्थ-जो सज्जन अपने द्रव्यको देवताकार्यके लिए संकल्प करके उसे अपने लिए उपयोग करता है, उससे उसका सर्वनाश होता है, यदि कन्यादान करके भी उस कन्याको पतिगृह में नहीं भेजे तो प्रिय दामाद भी शत्रु हो जाता है ॥ २१९ ॥
देवद्व्यग्रहणफल देवकल्पितरैहारे वैरं तेजोहति रुजं । पापं पुण्यक्षयं तिर्यग्गतिं गच्छेत्स नारकीम् ॥ २२० ॥