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भावलक्षणविधानम्
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अर्थ-जिस प्रकार लोकमें ग्रामपति व जनपतिकी अनुमतिके लिये विना कोई कार्य करें तो उसकी हानि होती है। उसी प्रकार गुरुवोंकी अनुमतिके विना जो चारित्रको पालन करते हैं उनकी हानि होती है। अर्थात् व्रतग्रहणादिक गुरुसाक्षीपूर्वक ही होना चाहिये ॥ ७१ ॥
यद्यत्कार्यमिमें जना नृपजनानुज्ञां विना कुर्वसे ॥ नाशं यान्ति फलं लभेत न यथा तत्तेन जीवा गुरोः ॥ सानुज्ञां च विना स्वयं व्रतमिता धर्मेतरं वर्तनं ।
सम्यग्धर्मफलं प्रयान्ति न विना तीर्थेशमन्येन च ॥७२॥ " अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि मनुष्य जो कार्य राजकीय परवानगीके बिना ही करते हैं, उससे उनकी हानि होती है, एवं उस कार्य से उन को भी फल नहीं मिलता है । इसी प्रकार हे जीव ! जो व्यक्ति गुरुवोंकी अनुमति व उपदेश आदिके विना स्वतः ही व्रत प्रहण करते हैं उनकी हानि होती हैं, वे धर्मबाह्यवर्तन भी कर सकते हैं। एवं उनको यथेष्ट फल नहीं मिल सकता है । क्यों कि तीर्थकर परमेष्ठियोंके द्वारा प्रतिपादित मार्गपर गये विना धर्मका समीचीन फल नहीं मिल सकता है ॥ ७२।।
व्यर्थ अर्थ. स्यात्स्वेशार्थो न धर्माय न भोगाय मनागपि ॥
यस्य तज्जीवनं व्यर्थ यथा बालेय जीवनम् ॥ ७३ ॥ अर्थ-जिन पुरुषोंका धन धर्मसाधन में और भोग में तिल मात्र भी उपयुक्त नहीं होता है, उनका जीवन गधेके जीवन के समान व्यर्थ है । ऐसा समझकर अपने धनका सत्कार्य में उपयोग करो। अन्यथा गवेमें और तुममें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा ॥ ७३ ॥
गेहे चौरावृते लोके तत्रस्थे जाग्रति स्वयम् । मुक्त्वा तदैव धावन्ति न ज्ञानाश्रयत्ययम् ॥ ७४ ॥