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दानशासनम्
ग्राह्योर्थः सागसां राज्ञा नान्यैरत्र यथा तथा । धर्मापराधिनां देवपूजायोग्यो बुधैर्न च ॥ ३८ ॥
अर्थ - पापी राजावों का धन राजावोंके द्वारा ही ग्रहण करने योग्य हैं । अन्योंके द्वारा नहीं । अथवा इस लोकमें धर्मापराधियोंका द्रव्य देवपूजादि कार्य में लिया जा सकता है। अन्य उत्तम पुरुष उसे ग्रहण नहीं करें ॥ ३८ ॥
इसलिए दाता और पात्रकी प्रवृत्ति निर्दोष होनेपर ही दानकी यथार्थ सिद्धि होती है
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इत्यष्टविधदानलक्षणम् ।
१ चण्डांशोरवलोकनादिव जगद्भ। त्यंधकारैर्भृतं कल्याणं च सकालिक हुतभुजस्तापाद्यथा शुध्यति । तद्वद्भानुर्हिमाशुकोटिसदृशप्रद्योत तीर्थंकरश्री पूजोत्सवसे वनोचितमिदं दुष्टेन दत्तं धनम् ||
किंच
सागसोर्थो नृपैस्सेव्यो न सेव्यो नृपसेवकैः देवपूजोचित दोषि वित्तं नान्यस्य चोचितं ॥