________________
२४४
दानशासनम्
-
दत्वानाणि रत्नानि गृह्णन्काचांस्तुषं यथा।
धर्मकार्याणि कुर्वति धर्मबुद्धया न कुर्वते ॥ १७० ॥ अर्थ-जिसप्रकार कोई सज्जन उत्तमोत्तम रस्नोंको देकर बदले में कांचके टुकडोंको लेते हैं, इसी प्रकार कोई सजन धर्मकार्योको तो करते हैं परंतु उसे धर्मबुद्धिसे न करके केवल ख्यातिलाभ पूजाके लिए करते हैं ॥ १७० ॥
वंचित्वात्मपति जारान्यस्योपकुरुते यथा।
तथात्मपात्रं वंचित्वैवान्येभ्यो ददतेऽत्र के ॥ १७१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री अपने पतिको ठग करके अन्य पुरुषको उपकार करती है, उसी प्रकार कोई २ सजन अपने उत्तम पात्रोंको आहारदान न देकर दूसरोंको दे देते हैं ॥ १७१ ॥
दाताओंका प्रकार केचित्कुर्वति दानं पशव इव जनस्संयता दुर्मनस्काः । केचिन्नित्यं च भृत्यैरिव कृषिकजनाबाधिता दुर्मनस्काः ॥ स्वामिप्रेष्याश्च केचिद्युवतय इव संकुप्यमानामनस्काः । केचित्कुर्वति दानं धृतभृतिमनुजा ये यथा तेऽत्र वप्रे॥१७२॥
अर्थ-कोई मनुष्योंके द्वारा बंधे हुए पशुवोंके समान मनके विचारको रखते हुए दान करते हैं । कोई नौकरोंके द्वारा बाधित कृषिकके समान हृदय रखते हुए दान करते हैं। कोई २ स्वामीके द्वारा कुपित स्त्रीके हृदयके समान विचार रखते हुए दान देते हैं। एवं कोई वेतनभोगी मौकरोंके समान दान देते हैं। इस प्रकार दान देते समय भिन्न २ प्रकारके परिणाम रहते हैं ॥ १७२ ।।
केचित्पात्रमवेक्ष्य चाटुवचनैः संतर्य यांत्यधिनः । केचित्पात्रमवेक्ष्य सद्मनि चिरं भीता इवात्रासते ॥