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दानशासनम्
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रोग रागं स्वयुवतिसुखं नित्यमिच्छंति जैनाः ।
दानं पूजां कुरु कुरु न भो नोऽद्य वारो वदेन ॥ ४७ ॥ अर्थ-आत्मकल्याणेच्छु भव्य हमेशा शास्त्रज्ञानकी अपेक्षा करते हैं । तत्त्वविचार करना चाहते हैं । लोकमें सुंदर व्यवहार चाहते हैं। इसी प्रकार कृषि, भोजन, स्वामिसेवा, स्नान, पान, धन, औषध निरातंक राज्यलक्ष्मी, रोगपरिहार, धर्मानुराग, स्वतरुणीसुख इत्यादि बातोंको चाहते रहते हैं । इसलिए हे भव्य ! पुण्य की सिद्धि के लिए दान व पूजा सदा करो। दान पूजाके लिए " आजका वार अच्छा नहीं कल करेंगे " इत्यादि प्रकार से टालने की कोशिस मत करो । कारण कि दान व पूजासे पुण्य की वृद्धि होती है जिससे उपर्युक्त सुखसाम. ग्रियों की प्राप्ति सरलतासे होती है ॥ ४७ ।।
यावद्यावद्ग्रंथ एकस्य वृद्ध तावत्तावव्यनाशोऽधवृद्धिः ॥ तावत्तावदानपूजाभिवृद्धिं कुर्यात्तत्पुण्याभिवृद्धि प्रमेव ॥४८॥
अर्थ-जबतक यह मनुष्य परिग्रहोंकी वृद्धि करता जाता है तबतक उन परिग्रहोंके बढाने के निमित्तसे धनका नःश व पापकी वृद्धि होती है । इसलिए बुद्धिमान सज्जनको उचित है कि वह परिग्रहोंके संग्रह के साथ २ दानपूजादिक सत्कार्योको भी करें। क्यों कि दान पूजादिक कार्य संतानोत्पत्ति के समान पुण्यकी वृद्धि को करते हैं । पुण्य की वृद्धि होनेसे धन की प्राप्ति होती है। उससे इच्छित पदार्थकी प्राप्ति होती है। वैसा न कर जो व्यक्ति केवल परिग्रहोंका संग्रह करता है, उसका द्रव्य नष्ट होता है । पाप की वृद्धि होकर पुनः धनादिककी प्राप्ति नहीं हो पाती जिससे उसे कष्ट उठाना पडता है ॥ ४८ ॥
सद्यः कार्य श्वोपि कार्य विदं भो । जीव ज्ञात्वा संविचार्यैव कृत्यम् ॥