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दानशासनम्
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'वीराक्रांतरवींदुविमिव मंदाग्नौ रुजौघो यथा ।।
वर्द्धतेऽल्पबलं नृपं त्वनियतं हंति स्वसेना यथा ॥२४६॥ अर्थ-भगवान् केवली, निर्दोष आगम, चतुर्विध धार्मिकसंघ, चतुर्णिकायामर देव, सर्वहितकारी धर्म, इनकी निंदा करनेसे व इनके संबंध के धन का अपहरण करनेसे इस प्राणीको महान् दुःख भोगना पडता है। मर्मस्थानमें मार लगनेसे जिसप्रकार इस शरीरसे आत्मा निकल जाता है, उसीप्रकार यह आत्मा पुण्यरहित होता है | राहु केतुके द्वारा प्रस्त चंद्रसूर्यके मंडल के समान निस्तेज होता है, मंदाग्नि की प्रबलता होनेपर जिसप्रकार रोगका समूह बढता है, हीनशक्तिवाले व अनियमितवृत्ति के धारक राजाको उसकी सेनाही जिसप्रकार मारती है, उसीप्रकार केवल्यादिककी निंदा करनेवालोंको दुःख भोगना पडता है ॥ २४६॥
देव, गुरुके प्रति विघ्न न करनेका उपदेश विघ्नो हत्यभवच्च रावणमृतिश्चेल्लक्ष्मणेनेव तं । स्मृत्वा चेतसि संविचार्य विळयो येनास्य सप्रेरितः ॥
विघ्नज्ञः स्वरिपो रिपुः सुकृतिनां चोरो यथार्थ हरे-। . द्विघ्नो यत्र भवेदविघ्नसुजनस्तेनैव नश्येत्स च ॥२४७॥ ___ अर्थ-दूसरों के पुण्य कार्य में विघ्न उपस्थित करना व परनिंदा करना यह महान् पाप बंधके लिए कारण हुआ करता है। इसी विघ्न के कारण से लक्ष्मणके द्वारा रावण का भरण हुआ । भवितव्य टळ नहीं सकता है। कहां रामचंद्र ? कहां रावण ? कहां अयोध्या और कहां लंका । दशरथके कैकयीके साथ वचनबद्ध होना, रामचंद्र और सीता को वनवासके लिए भेजना, शंभुकुमार की तपश्चर्या, लक्ष्मणको चंद्रहास खड्गकी प्राप्ति, सूर्पनखाके द्वारा रावणका बहकना, सीताप. हरण, आंजनेयके द्वारा सीतासंदेश, लंकाप्रयाण व लक्ष्मणके द्वार