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दानफलविचार
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रावणमरण यह सब बातें विधिके वैचित्र्यको सूचित करती हैं। रावण को विघ्नका फल भोगना ही पडा । इन बातोंको विचार कर अपने शत्रुवों के प्रति भी कोई विघ्न व अंतराय करने के लिए प्रयत्न न करें । पुण्यात्माओंके प्रति दुष्टजन विघ्न उपस्थित करते हैं जिस प्रकार कि चोर दूसरोंके द्रव्यको अपहरण करता है, परंतु वह दुष्टजन दूसरोंको विघ्न करनेमें स्वयं नष्ट होता है । तात्पर्य यह है कि अपनी भलाई चाहनेवाले देव, गुरु, धर्मके प्रति कोई विघ्न उपस्थित न करें ॥२४७॥
विधिकी विचित्रता कोऽयं किं बलमस्य केऽत्र सुहृदोऽमित्राः कियंतस्सुता। दक्षाः किं क इनः स्वबांधवजनाः के तेर्थिनः पेशलाः । स्मृत्वांतक्षतिरेव कैरिति तदा तत्रैव तैः कारयेत् । साचेत्कैरपि नास्तिवैरमखिलेष्वेवं विधिस्तामयान् ॥२४८॥ अर्थ-विधि बहुत विचित्र है, वह मनुष्यको किस समय क्या दुःख देना है इसकी व्यवस्था पहिलेसे कर लेता है, वह पहिलेसे विचार करता है यह कौन है ? इसकी शाक्त क्या है ? इसके मित्र कौन हैं ? वे कितने हैं, इसके शत्रु कौन हैं ? और कितने हैं, पुत्र कितने हैं ? और वे स्वधर्मव्यवहार कार्यमें कुशल है या नहीं ? इसके स्वामी कोन हैं ! कौन इसके बांधव हैं ? याचकजन कौन हैं ? इत्यादि बातोंको विचार कर यह भी विचार करता है कि इस समय किनसे इसका अहित हो सकता है, उनसे अहित कराता है । यदि उस समय कोई अहित करनेवाले नजर न आवे दुष्ट रोगादिक बाधावोंको लाकर पटक देता है ॥ २४८ ॥
धर्मकार्योंमें विन न करनेका उपदेश स्वस्वार्थ स्वमुतं स्वदं स्वपितरं स्वां मातरं स्वानुजं । स्वां दासी स्वपशुं च हंति दहति स्वावासमेषां गदान् ॥