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दानशासनम्
आदत्तेऽर्थहरान्नृपादिभिरलान्यक्कारयत्यन्वहम् । स्वं गेहं स्वपुरं स्वदेशमखिलं विघ्नो वृषागोर्जितः ॥ २४९ ॥
अर्थ-धर्मकार्यके लिए उपस्थित किया हुआ विघ्न बहुत बुरे फलको अनुभव कराता है । अपने, अपने पुत्र, अपनी भार्या, अपने पिता, अपनी माता, अपने भाई, अपनी दासी, द्विपद चतुष्पदादि पशु, आदिको वह मार डालता है, अपने आवास स्थानको जला डालता है। उसके घरपर अनेक भयंकर रोगोंको उत्पन्न करता है। चोरोंको प्रवेश कराता है, राजाके द्वारा अपमान कराता है, अपने घरपर, नगर में, देशमें सर्वत्र उसे कष्ट उठाना पडता है । इसलिए देव, ऋषि, धर्मकार्यमें विघ्न उपस्थित नहीं करना चाहिये ॥२४९ ॥
मृत्युः सर्वबलस्य नास्ति समरे केषांचिदस्त्यंगिनां । भुक्तानां न गदोस्ति नामयवतामंतोऽखिलास्सूनवः ॥ किं जीवंति वसंति किं युवतयो भोगोचिताः किं जनाः । श्रीमंतः किमिमे भवंति महता विघ्नेन नानाविधाः ।।२५०॥
अर्थ-युद्ध में जितने जाते हैं उन सबका मरण नहीं हुआ करता है, उनमेंसे किसीका मरण होता है। भोजन करनेवाले सबको रोग नहीं हुआ करता है। किसी किसीका होता है। उत्पन्न हुए पुत्र सबके सब जीते नहीं, कोई कोई जीते हैं । स्त्रियां सबके सब भोगोचित नहीं हुआ करती हैं। उनमेंसे कोई ही हुआ करती हैं। मनुष्य सबके सब श्रीमंत नहीं हुआ करते हैं। कोई २ ही हुआ करते हैं। इस प्रकार देव, गुरु व धर्मके प्रति किए हुए विघ्न व अपराधके फलसे अनेक प्रकारकी विचित्रता लोकमें देखी जाती है । तदनुसार फल इस जीवको अनुभव करना पडता है ॥ २५० ॥
चोरस्त्वात्मकरागतं धनमरिहस्तागतं हंति वा। व्याघ्रो गोनिवहैकमेव कणयः सेनाजनैकं यथा ॥