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पात्रभेदाधिकारः
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अर्थ – जो साधु कामक्रोधादिक कषायोंको जीतनेवाले शांत प्रकृति के साधुवोंके मध्य में सदा रहते हैं, उन साधुवोंके कामक्रोधादिक सर्व दोष नष्ट होते हैं । ऐसा न कर जो जवान साधु अपने शरीर के सुखसे स्वेच्छाचार पूर्वक एकाकी विहार करता है उसे वे दोषदूषित करते हैं । साधुपदसे गिराते हैं । और नियमसे साधुपद से उदासीनता भी उत्पन्न करते हैं ॥ १३ ॥
गुरुसेवा.
भीतः प्रीतियुतः सयुक्तिकुशलः सेवानुरागी गुणी । धर्मोद्योगपरो विदन्पतितनूरक्षाक्रियादक्षिणः | स्वस्वाम्याश्रयजप्रसादमहिमा शिष्यः स भृत्यो यथा । स्वस्वाम्यात्तविभूतितुल्यविभवं प्राप्नोति नित्यं गुरोः ॥ १४ ॥ ४
अर्थ - जिस प्रकार भयभीत, प्रीती से युक्त, युक्ति में कुशल, सेवाकार्यमें अनुरक्त, गुणवान्, न्यायपूर्ण उद्योग करनेवाला, स्वामिके शरीररक्षा में तत्पर, ऐसे स्वामिभक्त सेवकके प्रति संतुष्ट होकर स्वामी उस सेवकको अनेक ऐश्वर्य देता है उसी प्रकार उपर्युक्त सभी विशेषणोंसे युक्त होकर जो सच्चे हृदय से गुरुसेवा करनेवाले शिष्यके प्रति गुरु भी प्रसन्न होकर अपने आश्रित शिष्यको प्रसाद के रूपमें अनेक गुणोंको देते हैं ॥ १४ ॥ गुरुके प्रति कर्तव्य.
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माग्रे तिष्ठ गुरोर्गुरोश्च चरमे गायन्हसम्म पठेग्रंथं कामविकारिणं त्वघकरं मिथ्योपदिष्टं सदा । रागद्वेषनिमित्तमात्मविभवच्छेदोचितं मा वद । ब्रूहि ब्रूहि हितं मितं ! स्थितिकरं पूतं सभापूजितम् ॥ १५ ॥
x भूरिरिपुर्ना नृपतिं श्रित्वा परिभूय तान्विहाय पुनस्तं । विहरतं सद्यस्ते व्नंति तथा विकलचरितशिष्यं दोषाः ॥