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दानशासनम्
करता है, ठण्डा है, एवं सर्वजनोंसे सेव्य है उसी प्रकार जो व्यक्ति बहुत आदरपूर्वक दान देता है, उसका पापरूपी वात नाश होता है । उसका कर्ममल नष्ट होता है, उसकी तेज बुद्धि तेज होजाती है, पाप का नाश होकर पुण्यकी वृद्धि होती है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म दूर हो जाता है । वह शांत बनता है । विद्वानों द्वारा आदरणीय होता है । इस प्रकार आदरभावसे पात्रदान देने में बलुतसे गुण प्राप्त होते हैं ॥ २०॥
दया गंगेव कुल्याचदादरः सादरी जनः ।।
पुण्यपूरगिरिः पात्रं स्यानदीमातृको यथा ॥ २१ ॥ अर्थ- मनुष्य के हृदय में जो दया है वह गंगानदी के समान है । उसके हृदय का जो आदर वह नहरके समान है, वह आदरसहित मनुष्य उस नदीके उत्पन्न करनेवाला पर्वतके समान है । जो पुण्यप्रवाहको जन्म देता है । पात्र उस नदीके द्वारा जल प्राप्त करनेवाले देशोंके समान है ॥ २१ ॥
न क्रोधो न च मत्सरो न च मदो माया न कामो न न। द्वेषो मोहसरागदर्पमदना लोभो भवेत्तस्य न ॥ सम्यक्त्वव्रतगुप्तिपंचसमितिष्वासक्तिरभ्यासता। नित्यं पुण्यविचारता निपुणता दानेषु यत्रादरः ॥ २२ ॥ अर्थ-जिस भव्यको दान देने में आदर है उसको क्रोध, मात्सर्य, मद, माया, काम, द्वेष, मोह, गर्व, विषयाभिलाषा इत्यादि दोष दूषित नहीं करते हैं । परंतु सम्यक्त्व, व्रत, गुप्ति, समिति इत्यादि पुण्यविचारोमें आसक्ति, नित्य पुण्य विषयोंका विचार करना, सर्व कार्योमें नैपुण्य इत्यादि गुण उसको प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥
पात्रप्रेमका फल आधयो व्याधयो न स्युर्बाधाराजादिसंभवा । जनः प्रियंवदस्तत्र यत्रास्ते सादरी जनः ॥ २३ ॥