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पात्रभेदाधिकारः
अर्थ – पात्रों के भेदको जानने वाले महर्षियोने पात्रोंको पांच प्रकारसे कहा है । वह कैसे ? इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होनेपर आचार्य उसका उत्तर देते हैं ॥ ४ ॥
पात्र भेद उत्कृष्टपात्रमनगारमणुत्रताढ्यं । मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यं ॥ निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं तु विद्धि ॥ ५ ॥
अर्थ – महाव्रतधारी सकल संयमी मुनि उत्तम पात्र हैं, अणुव्रती श्रावक मध्यमपात्र है । व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है । सम्यग्दशनरहित अपितु व्रतसहित वह कुपात्र है । सम्यग्दर्शन व व्रत इन दोनों से रहित अपात्र है ऐसा समझना चाहिये ॥ ५ ॥
उत्तम पात्र
संगादिरहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः
शांता दांतास्तपोभूषास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ६ ॥ अर्थ- परिग्रहोंसे रहित, परीषद्दोंको सहन करने में रागद्वेषादिविकाररहित, शांत, कषायोंको दमन करने वाले, विभूषित साधु वे उत्तम पात्र कहलाते हैं ॥ ६ ॥
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निःसंगिनोऽपि वृत्ताढ्या निस्नेहाः सुगतिप्रियाः । अभूषाश्च तपोभूषास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ७ ॥
धीर,
तपसे
अर्थ - परिप्रई से रहित होनेपर भी चारित्रसे युक्त हैं, रागादियोंसे रहित होनेपर भी अच्छी गति ( मोक्षगति ) में प्रीति रखने वाले हैं, आभरणों से रहित होनेपर भी तपोभूषण से भूषित हैं, वे पात्र दाता के लिये उत्तम हैं ॥ ७ ॥
परीषहजये शक्ताः शक्ताः कर्मपरिक्षये ।
ज्ञानध्यानतपरशक्तास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ८ ॥