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दानशासनम्
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मित्र स्वामिबलं स्वांधवजनं जैनं च सद्धार्मिकं । - यास्याच्छंसति तस्य पुण्यममलं तेजोऽपि भाग्यादिक॥१९ . अर्थ-जो व्यक्ति अपने पिता, स्वामी, उत्तम मनुष्य, जमाई, माता विश्वस्त व्यक्ति, गुरु, सेवक, शत्रु, बडे पुरुष, गुणवान, स्त्री, मित्र, स्वामिसेना, बंधुजन, धार्मिक जैन आदिको गुणानुरागसे प्रशंसा करता हो वस्तुतः वह पुण्यशाली है उसका भाग्य तेज वगैरह बढता
स्थैर्यादेयत्वगर्भार्यतेजस्वित्वसुरूपताः । सौभाग्यत्यागिभोगित्वयशस्वित्वमरोगताः ॥ २० ॥
चिरंजीवित्वमित्यादिलोकोत्तरगुणानपि । __धर्मार्थकाममोक्षान्यः स बजेदभयपदः ॥ २१॥ .
अर्थ-अभयदान देनेवाला व्यक्ति प्रत्येक कार्य में स्थिरता, शत्रु मित्रादि जनोंको वश करनेमें प्रभावक शरीर, समुद्र के समान गांभीर्य, सूर्यके समान तेज, सबको प्रसन्न करनेवाला सुंदर रूप, सौभाग्य, पात्रदानादि कार्य में त्यागभाव, यथेष्ट इंद्रियसुख में भोगित्व, सर्व कार्य में यशस्वी होकर कीर्तिसंपादन, नीरोग शरीर एवं चिरायु आदि बहुतसे लौकिक एवं लोकोत्तर गुणोंको भी प्राप्त करता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ उसे सहज प्राप्त होते हैं ॥२०॥२१॥
धन्यराजतपोभाजी हितपूतमितीक्तयः । वर्धयति स्वतेजांसि नाशयंत्यघसंचयान् ॥ २२ ॥ अर्थ-हित, मित, मधुर वचनको बोलनेवाले राजा, तपोधन [ मुनीश्वर ] आदिका तेज बढता है, पापनाश होकर पुण्यकी वृद्धि होती है ॥ २२ ॥ १ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः ॥
भवत्यभयदानेन चिरंजीवी निरामयः ।।