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विषयानुक्रमणिका
... पृष्ठ श्लोक १८४ न्यायोपार्जित धन सबकी वृद्धिका कारण होता है ९३ १८० १४५ देने का संकल्प कर न देने का फल ९४ १८१ १८६ धर्मव्य व दूसरों के अन्नादिक हरण करनेका फल
.. ९४ १८२-१८३ १८७ अन्य गृहमें भोजन करनेपर उसके बदलेमें . कुछ देनेका विधान
९५ १८४ १८८ दत्तद्रव्य ग्रहण करने का विधान
जिनालय जीर्ण होनेपर धनवान् श्रावक उदास न होवे .
.९५ १८६ १८९ जिनेंद्र व मुनींद्रोंकी प्रतिमा सविकार नहीं बनावें ९६ १८७ १९० प्राचीन आर्वाचीन काल में राजाओंकी स्थिति ९६ १८८ १९१ राजदर्बारमें भंडवचनादिका निषेध ९६.९७ १८९-१९१ १९२ धनान्ध लोगोंका व्यवहार . ९७-९८ १९२-१९३ १९३ विघ्न का फल तत्क्षण मिलता है ९८ १९४ १९४ पापका फल विचित्र होता है ९७.९९ १९५-९७ १९५ विग्न से देश नष्ट हो जाता है १०० १९८ १९६ अभयदान का फल अचिन्त्य है १०६ १९९.२०१ १९७ बंधु वगैरे मोहकी वृद्धि करनेवाले हैं • १०२ २०२ १९८ मिथ्यात्वादिसे बचनेका आदेश
१०२ २०३ १९९ जो विद्या सस्फल प्रद है उसीको पढना चाहिए १०३ २०१ २०० राजाको खजाने के समान. पुण्यकी भी रक्षा ___ करनी चाहिए
. १०३ २०५ २०१ अमय दानका फल
१०३-१०१.२०६-२०७ २०२ पुण्य वृक्ष को दानसे बढानेका आदेश १०४ २०८ २०३ सज्जन लोग ऐसा विचार करें १०४.१०५ २०९.२११ २०१ उपसंहार
१०५, २१२