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दानशासनम्
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पापोंके उपार्जनके लिए एवं बंधुवर्गीका संहार करनेके लिए दीक्षा लेते हैं॥ २६ ॥
कश्चिदात्मविनाशाय निजधर्मकहानये ।
दुष्टमिथ्याग्रहग्रस्तः पार्श्वनामामुनिर्यथा ॥२७॥ अर्थ-कोई २ पार्श्वमुनि के समान अपने नाशके लिये, अपने धर्मके नाशकेलिये, दुष्ट मिथ्यात्वरूपी भूतके वर्शाभूत होकर दीक्षा लेता है ॥ २७ ॥
कश्चिदुच्चासनासक्तः कषायानच्छमानसः।
काष्ठांगार इवाभाति प्रध्वस्तनिजवल्लभः ॥२८॥ अर्थ-कोई २ काष्टांगारके समान उच्च आसनों (पद ) के लोलुपी होकर, कषायकलुषित चित्तसे, अपने स्वामीके नाश करनेकी भावनासे दीक्षा लेता है ॥ २८ ॥ · देहक्लेशसहाः केचित्परोत्कर्षासहिष्णवः ।
नाशयंति जनान्धर्म भूपा भूत्वागजन्मनि ॥२९॥ अर्थ-कोई २ देहके क्लेशको सहन करनेवाले हैं और कोई दूसरोंके उत्कर्षको सहन करनेवाले नहीं हैं। वे आगेके जन्ममें राजा होकर प्रजा व धर्मको नाश करते हैं ॥ २९ ॥
तपांसि धृत्वा कायेन हद्वाग्भ्यां नंति तानि च । वोत्खातयंतः शाल्यानि मुक्त्वा श्वेतार्जुनानि च ॥३०॥ अर्थ-कोई २ कायसे तप धारण कर वचन और मनसे उसका नाश करते हैं । वे उसीके समान मूर्ख हैं जो खेतमें व्यर्थके घासोंको काटना छोडकर सस्योंको ही काटकर नाश करता है ॥ ३० ॥
अन्योन्यमत्सराः केचिन्मुनयो मुनिदूषकाः ॥ स्वामिदत्तार्थ भुजाना इव स्वस्वामिदूषकाः ॥ ३१ ॥