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पात्रभेदाधिकारः
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अनुभवशून्य बालमुनि या अर्जिका एकाकी होकर विहरण करें तो काम क्रोधादिक विकार उनको चारों तरफसे आक्रमण करते हैं ॥२२॥
अभिमाननिषेध. राजानुग्रहतो भृत्यो जनान्यक्कृत्य नश्यति । : यथा जडात्मा शिष्योऽपि गुर्वनुग्रहमात्रतः ॥२३॥ । अर्थ-राजाके अनुग्रहको प्राप्त करनेवाला सेवक अभिमानी होकर लोगोंको पीडा देनेसे जिस प्रकार अपना नाश करता है, उसी प्रकार अज्ञानी शिष्य गुरूके अनुग्रहसे मदोन्मत्त होकर अपने आत्माका पतन कर लेता है ॥ २३ ॥
दीक्षोद्देश्य. दीक्षां गृह्णन्ति मनुजाः स्वकर्महरणाय च । स्वपुण्यवृद्धये केचित् केचित्संमृतिमुक्तये ॥२४॥
अर्थ-संसारमें कोई मनुष्य अपने कर्मोको नाश करनेके लिए दीक्षा लेते हैं । कोई अपने पुण्यकी वृद्धि के लिए दीक्षा लेते हैं। कोई संसारसे छूटनेके लिए दीक्षा लेते हैं ॥ २४ ॥
विश्वजीवानुकंपावान् धर्मप्रद्योतकारकः । यथा श्रीगौतमस्वामी केचिदात्मविशुद्धये ॥२५॥
अर्थ संसारके समस्त जीवोंके प्रति अनुकंपा रखनेवाले, धर्मकी प्रभावना करनेवाले श्रीगौतमस्वामीने जिस प्रकार आत्मशुद्धि के लिए दीक्षा ली है वैसे भी कोई २ दीक्षा लेते हैं ॥ २५ ॥
कश्चित्स्वकुलनाशाय दुष्कृतोपार्जनाय ना। बंधुवर्गविनाशाय द्वीपायनमुनिर्यथा ॥२६॥ अर्थ-कोई २ द्वीपायन मुनिके समान अपने कुलके नाशके लिए,