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दानफलविचार
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बहुत ही आदरके साथ पालन करता है तब वे सुखी होते हैं। उसी प्रकार बहुत आदर व भाक्तिके साथ जो श्रावक दान देते हैं वे सुखी होते हैं । विनाभक्तिके आहारदान देनेसे सुखी कैसे होसकते हैं ? कभी नहीं ॥ १४ ॥
अंतरायफल भिक्षाकालेन्तरायांत्रिकरणजनितान्येऽत्र कुर्वति तेषां । चेतस्थो योग्यलक्ष्मी क्षपयति स च यो बाह्यलक्ष्मी बलाख्यां। वाक्यस्थो देहिवाचं स्थगयति सकलं जाड्यगाद्गद्यमौक्यं । शारीरो देहसाताकरयुवतिधनाहारभूषादिनाशम् ॥ ९५ ।।
अर्थ-साधुवोंके आहारके समयमें जो व्यक्ति मन वचन कायसे उनको मानसिक, वाचिक व कायिक आघात पहुंचाते हुए विघ्न करते हैं उनको उस पापके फलसे अनेक प्रकारसे हानि उठानी पडती है । यदि मानसिक क्षोभ साधुवोंको पहुंचाया हो तो उस पापीका मानसिक सामर्थ्य व बल कम होता है। एवं बाह्यलक्ष्मी भी घट जाती है। यदि वाचनिक अंतराय हो तो उस पापीके लिए वाचनिक शक्तिकी हीनता होती है । वचनमें जाड्यता [ अज्ञान ] बढती है, गद्गदता अर्थात् तोतलापना आता है । विशेष क्या ? क्रमशः मूकता ही आती है । यदि देहसंबंधी विघ्न किया हो तो देहका सुख, स्त्रीसुख, धन, आहार, आभरण आदि का नाश हो जाता है ॥ ९५ ॥
सुकृती व पापीका जीवन उप्तं कदल्या इव कंदयुग्मं सम्यक् क्रियायां फलति द्रुतं तत् । दत्तन किंचित् फलमक्रियायां पापी चिरायुः मुकृती गतायुः ॥ ९६ ॥