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चतुर्विधदाननिरूपण
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तिक्तमूलवपुःपत्र पुष्पादिश्चिमंटो यथा ॥
पके मधुरतां याति केचिदंत्ये शुभाशयाः ॥ ५४॥ अर्थ- जिसका जड, लता, पत्र, पुष्प आदि सभी कडुवे हैं अपितु अंत में फल मीठा निकलता है ऐसी काकडी जिस प्रकार है उसी प्रकार कोई २ धर्मात्मा पहिले साधारण सुखका अनुभव करनेपर भी अंत में धर्म के प्रभावसे स्वर्गादिक संपत्तिका अनुभव करते हैं ॥५४॥
आस्तेऽभक्तो बंधृको भास्कराभिमुखो यथा ॥ . केचिदेव जिनेंद्रोक्तसन्मार्गाभिमुखास्तथा ॥ ५५ ॥ अर्थ-जिस प्रकार सूर्यभक्त बंधूक पुष्प सूर्याभिमुख होकर रहता है इसी प्रकार कोई २ भव्य जिनेंद्र भगवंतके द्वारा उपदिष्ट सन्मार्गके प्रति अभिमुख होकर रहते हैं ॥ ५५ ॥
वंगसेना यथोन्निद्रा कोकबांधवदर्शनात् ॥ जिना लोकने केचिद्भवंति कृतिनस्तथा ॥ ५६ ॥ अर्य-वंगसेना ( हाथियावृक्ष ) वृक्ष सूर्यबिंबके अवलोकनसे खिल जाता है इसीप्रकार कोई २ भव्य जिनपूजोत्सवको देखनेसे संतुष्ट होकर अपने को धन्य मानते हैं ॥ ५६ ॥
केचित्संसारसुखिनः संसारावर्तवर्तिनः ॥ संसाराधितटं यांति भेका इव जलांतरे ॥ ५७ ॥ अर्थ--कोई संसारसमुद्र के तरंगमें फंसे हुए जीव संसारमें सुख है ऐसा समझकर संप्तारसमुद्रके तटमें जाते हैं जिस प्रकार मेंढक पानीके तल पर न जाकर तटके तरफही जाते हैं ॥ ५७ ॥
पल्यंकांदोळवाहीभारोहिणो भूभुजो यथा ॥
केचिज्जीवास्तथा शश्वत्स्वर्गारोहणशालिनः ॥५८॥ अर्थ--जिसप्रकार राजा पल्लकी, झूला, घोडा, हाथी इत्यादि