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दानशासनम् -
पूनामीक्षितुमेत यूयमिति चाहाने शयानो वदे- । घामोद्येति चिरं प्रसुप्य पुनरुत्थायैव भूत्वा शुचिः ॥ स्थित्वाची कुरु मेति दूत वसतावुक्त्वा त्वमागच्छ भाः।
लक्ष्मीलक्ष्म न कस्य लक्षणमिदं पापस्य गर्वस्य वा ५१ अर्थ--यदि किसीको किसीने पूजा देखनेकलिये निमंत्रण दिया हो कि आप आज पूजा देखनेके लिये मंदिरमें अवश्य आवें । तब यह लेटे २ ही उत्तर देता है कि " आयेंगे"। फिर निश्शक होकर निद्रा लेता है । उठकर मलमूत्रादिसे निवृत्त होकर दूतको बुलाकर कहता है कि अरे देवदत्त ! मंदिरमें जाकर कहो मैं जबतक नहीं आवू तबतक पूजा मत करो। मैं पूजा देखने के लिये आनेवाला हूं। आचार्य आश्चर्य करते हैं कि यह वृत्ति श्रीमतीको है अथवा पापकी है ? या गर्वकी है ? ऐसे प्रमाद आचरणसे अवश्य पापबंध होता है ॥ ५१ ॥
सद्धमोचितपुण्यात्संसारसुखानुभवनमितरत्स्यात् ॥
स्पर भन कुरु भव जहि जिनमुरुसंघ दानमाययि नित्यं५२ - अर्थ--सद्धर्मोपार्जित पुण्यसे संसार सुख तो मिलताही है, अतीद्रियसुख भी मिलता है । इसलिये हे भव्य ! जिनेंद्रचरणको स्मरण करो । चतुःसंधकी नित्यसेवा करो । दानादि सदाचरणमें अपना चित्त लगावो । संसारमें इस आत्माको पतन करनेवाले पंच पापोंको त्याग करो ॥ ५२ ॥
संतः शाल्यनमिच्छति न च मद्यं तदुद्भवं ॥
धर्ममेव यथा किंचित् किंचिन्नेच्छंति दुष्कृतं ॥ ५३ ॥ अर्थ-सज्जनलोग शालीके केवल धान चाहते हैं । उससे उत्पन्न मद्यकी इच्छा उनको नहीं रहती है । इस लिये धर्मात्मा लोग जो भी कार्य करें वह पुण्योत्पादक हो उसीको करें । पापोत्पादक कार्य की वे इच्छा नहीं करते हैं ।। ५३ ॥ . .