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दानशासनम्
प्राप्ति के लिए, ज्ञानसमुद्रके पार जानेके लिए, समस्त रोग व अज्ञानको दूर करनेकेलिए, अवश्य करें ! जिसप्रकार अपने पुत्रके विद्याभ्यास व अपनी खेत के संरक्षण केलिए मनुष्य धनव्ययका विचार नहीं किया करता है उसी प्रकार इन पवित्र कार्योंके लिए धनव्ययकी मर्यादा नहीं रखनी चाहिये ॥ १४ ॥ १५ ॥ + विनयका महत्व
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अंकुरयति पल्लवयति व्याप्नोति पुत्रजडबुद्धिः । बहुफलति सरसगोहलवीर्येणलेव विनयधनदानात् ॥ १६ अर्थ – जिसप्रकार जमीनमें खातके डालने से सस्यकी समृद्धि होती है, उसीप्रकार अज्ञानी बालकों की जडबुद्धि में विनयरूपी धनके प्रदान करने से वह अंकुरिक होती है, पल्लवित होती हैं । उसका विकास होता है | अतः विनयगुणको धारण करना आवश्यक है ॥ १६ ॥ शास्त्रपठनयोग्यस्थान
सौधे नगे वने रम्ये मंदिरे विमले स्थळे | शास्त्राणि पठतां नित्यं बुद्धिरंकुरयत्यहो ॥ १७ ॥
अर्थ – हे भव्य ! प्रतिनित्य महल में, पर्वतपर, वनमें मल मूत्र उच्छिष्टादिर इत निर्मलस्थान में जो प्रतिनित्य शास्त्रका स्वाध्याय करता है, उसकी बुद्धि अंकुरित होती है, अर्थात् उसके ज्ञानमें निर्मलता बढती है !! १७ ॥
पुस्तकादि दानफल
पठतामुपदेष्णां पुस्तकगृहचित्तदेह रक्षणवित्तैः ।
यः कुरुते सुमनस्त्वं सम्यग्ज्ञानं स मोक्षमपि लभते ॥ १८॥
+ संप्रत्यत्र न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि - | स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिताः ॥ सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तासां समालंबनं । तत्पूजा जिनवाक्य पूजनतया साक्षाज्जिनः पूजितः ||