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शास्त्रदानविचार
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विद्वदभ्यो ददते नित्यं लिखितालिखितानि ते।
पुस्तकान्युचितानि स्युः शास्त्रवाराशिपारगाः ॥१२॥ अर्थ-जो सज्जन लिखित व अलिखित शास्त्रोंको ज्ञानोपार्जन करनेके लिए विद्वानोंको प्रदान करते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी होते हैं ॥ १२ ॥ लिखितं पुस्तकमलिखितमंबरनाराचकंटगुणमंजूषाः । ये ददते ते पुरुषा जिनशास्त्रपयोधिपारगा एव स्युः ॥१३॥
अर्थ-जो सज्जन साधुसंतोंके लिए ज्ञानार्जनके साधनभूत लिखित शास्त्र, अलिखित शास्त्र, वस्त्रवेष्टन, लोहकंटक आदि दान में देते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्रके पारगामी होते हैं ॥ १३ ॥
भक्ती राज्ञि वृथा भवेद्बहुविधा यच्छंति सेवा यथा । सप्तांगं सफलं तथा जिनपतौ धर्मप्रभावोत्सुके ॥ धर्मे धर्मबलद्वये गुरुवरे साधौ सदा धार्मिके । शास्ने शानिणि पुस्तकेषु पठति व्याख्यातरि श्रोतरि॥१४॥ पापं नाशयितुं मुखं च सुकृतं लब्धं सुबोधांबुधेः । पारं गंतुमिमा रुजां जडमति इंतुं स भव्यो जनः ॥ वर्णाभ्यासकरे तुजां जनपतौ नार्थव्ययस्यावधि । कुर्यात्क्षेत्रविधाविमास्तदुचिताः पूतक्रिया भक्तितः॥१५॥ अर्थ- जिसप्रकार राजाके प्रति की हुई सेवारहित भक्ति व्यर्थ होती है, यदि वही भक्ति सेवासहित की गई तो उससे अनेक प्रकारके फल मिलते हैं । इसीप्रकार जिनेंद्रभगवंत, धर्मप्रभावनातत्पर साधर्मी भाई, धर्म, धर्माश्रित स्वपर बंधुगण, गुरुजन, साधुगण, धार्मिकजन, शास्त्र, शास्त्री, पुस्तक, पढनेवाले, व्याख्यान करनेवाले, और श्रोता आदिकी सेवा भव्यजन पापके नाशकेलिए, पुण्यकी वृद्धिकेलिए, सुखकी