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दानशासनम्
लोकका उद्धार
अपि तीर्थकरास्तीर्थमुद्धरति जगद्धितम् । अत एव हि ते पूज्याः सर्वलोकैश्च योगिभिः ॥ ८ ॥
अर्थ - इस संसार में तीर्थंकर परमेष्ठी भी द्वादशांगादिशास्त्रका उद्धार जगत् के हित के लिए ही करते हैं । इसलिए ही वे समस्त संसार के प्राणियोंसे व मुनीश्वरोंके द्वारा पूज्य होते हैं ॥ ८ ॥
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शास्त्रप्रतिष्ठा
शास्त्रे प्रतिष्ठिते साक्षान्ननु धर्मः प्रतिष्ठितः ।
स्वात्मा प्रतिष्ठितो भव्यलोकश्चापि प्रतिष्ठितः ॥ ९ ॥
अर्थ - शास्त्रकी प्रतिष्ठा करनेपर साक्षात् धर्मकी स्थापना होती है । अपने आत्माकी प्रतिष्ठा होती है । जिसमें भव्य लोगों की भी प्रतिष्ठ होती है ॥ ९ ॥
किमत्र बहुनोक्तेन धर्मः शास्त्रात्प्रवर्तते ।
ततो धर्मार्थिनः शास्त्रमुद्धरंतु प्रयत्नतः ॥ १० ॥
अर्थ - इस संबंध में विशेष क्या कहें ? धर्मकी प्रवृत्ति शास्त्रसे ही होती है । इसलिए धर्मको चाहनेवाले सज्जन यत्नपूर्वक शास्त्रका उद्धार करें ॥ १० ॥
शास्त्रदानफल.
ये संलिखतीह विळेखयंति व्याख्यांति श्रुण्वंति पठंति शास्त्रम् । अर्चति शंसति नमति तेऽर्थान्यच्छंति शास्त्राब्धितटं गताः स्युः ११
अर्थ – जो सज्जन शास्त्रको लिखते हैं, लिखाते हैं, व्याख्यान करते हैं, सुनते हैं, पढते हैं, पूजा करते हैं, प्रशंसा करते हैं, नमस्कार करते हैं, शास्त्रके निमित्तसे द्रव्यका दान करते हैं, वे शास्त्र समुद्र के तटपर पहुंचते हैं अर्थात् समस्तशास्त्र में पारंगत होते हैं
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११ ॥