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दानशासनम्
असेव्यानि सजंतूनि फलानि ददते बहु । यथा क्षीरिद्रुमाः केचिदोषयुग्दानिनस्तथा ॥ १८२ ॥ स्ववत्सपुष्टिबुद्धयैव न क्षरंति यथा नृणाम् । वंचक्यः पशवश्वण्ड्यः काश्वियुवतयस्तथा ॥ १८३॥ धनवंतस्तथा केचिनिरर्था दानवर्जिताः । श्रीफलाः फलवंतोपि यथा सेव्या न चाम्रवत् ॥ १८४ ॥ या स्त्रियो ये नरा वृद्धः स्वसेवां कारयति ताः ।
दास्या भवेयुस्ते दासास्तवृत्या जन्मजन्मनि ॥१८५॥ - अर्थ--कोई दानी क्षीरिद्रुमादिक वृक्षोंके समान है, क्यों कि वे असेव्य बहुतसे फलों को प्रदान करते हैं, इसीप्रकार कोई दानी दोषयुक्त अनेक द्रव्योंको दान देने के लिए रखते हैं ॥ १८२ ॥
कोई २ मायाचारिणी गायें अपने बछडेके पोषणके लिए ही दूध को छोडती हैं, उसी प्रकार कोई २ स्त्रियां अपने बच्चोंके व घरके पोषण के लिए आहार द्रव्य रखकर पात्रों के आनेपर उसके अभावको बतलाती हैं ॥ १८३ ॥
कितने ही धनवान् ऐसे रहते हैं कि धनके रहते हुए भी दान-कार्यको नहीं करते हैं। उनका धन भी निरर्थक है। जिस प्रकार कि बेल के वृक्षमें विशेष बेल फल रहने पर भी आमके समान सुगमता •से वे फल नहीं खाये जाते ॥ १८४ ॥
जो स्त्रियां व पुरुष अपनेसे ज्ञान वय आदियों से वृद्धजनोसे सेवा कराते हैं वे जन्मजन्ममें दास दासी होकर उत्पन्न होते हैं ॥ १८५ ॥
यः क्लिनात्यधनः सरा यदि भवेदत्तेऽहंसे दुर्दशे ।
वेश्याहासकगीतिभंडभृतये देहाक्षसौख्याय च ॥ : दुस्थाने भवनाय मूलधननि शोधमायाखिल
स्तस्यायों घटते सदा न घटसे धर्माय वित्तादिकः॥१८६॥