________________
चतुर्विधदाननिरूपण
व लक्ष्मी ये दोनों प्रवेश नहीं करती है। शुभाचरण करनेवालोंको देखकरही लक्ष्मी उनके घर जाती हैं, प्रत्युत ऐसे दुराचारी अशुभ क्रियावोंसे दरिद्रीही बनते हैं ॥ १० ॥
सहस्रजनभोगेऽपि वंध्यायां न तुजो यथा । तथा पापात्मके पुंसि, नोद्भवंति शुभक्रियाः ॥ १०१ ॥ अर्थ--जिस प्रकार हजारो आदमियों के संभोग करनेपरभी वंध्याको संतानोत्पत्ति होती नहीं इसी प्रकार पापी मनुष्योमें किसीभी प्रकार शुभाचरण उत्पन्न नहीं होते हैं ॥ १.१॥ .
सात्मवपुः शुद्धमिदं मळीमसं विमलमाहुरेवार्याः। स्यात्तदपुण्यं शवमिव विबुधैरधिगम्य वन्हिदग्धं तैः १०२ अर्थ-पापक्रियावों से पापबंध होता है, मनुष्यको पुण्यकर्मसे सब कुछ प्राप्त होते हैं । इस शरीर में जबतक आत्मा रहता है तबतक मलिन होनेपरभी पवित्र माना जाता है । कोई उसे स्पर्श करनेमें घृणा नहीं करते हैं । परंतु जब पुण्यहीन होनेसे उससे आत्मा निकल जाता है तब वह शरीर अस्पृश्य माना जाता है एवं जिस शरीरको हम बडा 'भादर करते थे उसीको जलाते हैं । यह क्या ! यह सब पुण्यपाप कर्मोकी महिमा है। इसलिये मनुष्यको सदा पुण्यके साहचर्य प्राप्त करना चाहिये ।। १०२॥
तातं स्वामिनमुत्तमार्यमनुज जामातरं मातरं । मातारं बुधमिष्टसेवक कुलज्येष्ठं गुणं वल्लभां ॥ मित्रं स्वामिबलं स्वबान्धवजनं जैनं जनं धार्मिकं ।
यः स्यानिंदति तस्य चायुरयशःश्रीस्थानवेशक्षयः ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने पिता, गुरु, स्वामी, उत्तम सज्जन, जमाई, माता,विद्वान , इष्ट सेवक, कुलगुरु, भाई, अपने स्त्री, मित्र, स्वामि, सेना