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दानशासनम्
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भूत होकर अपने चित्तमें, महलमें, नगर में एवं अपने देशमें सदा काल प्राणियोंको कष्ट पहुंचाता रहता है । अपने स्वार्थकी पुष्टिक लिये उन आश्रितजीवोंको अनेक प्रकारसे पीडा देता है यह नारकी वृत्ति है। इस प्रकारकी दुष्टवृत्ति से सज्जनलोगोंको हरतरहसे कष्ट पहुंचाया जाता है। सज्जन लोग ऐसे राजासे घृणा करते हैं । यह सब राजाके ऐश्वर्य उसके हायसे जानेके चिन्ह हैं ॥ ९८॥
नाहं त्वं दुष्कृतोऽहं बहुसुकृतफलस्त्वंनृपोऽहं कुचारी। त्वं दाता याचिताहं त्वमरिकुलभयो भीतिरको बुधस्त्वं ॥ स्तुत्यःस्तोता विवेकी त्वमहमपि जडः श्रावणीयः सुवक्ता। त्वं स्वामी सेवकोऽहं त्वमिह भज निजां पुण्यवृद्धि क्षितीश॥९९
अर्थ-अपने रक्षक राजाको अभयदान पालन करने के लिये इस प्रकार प्रेरणा करें कि हे राजन् ! तुम पुण्यवान हो, मैं पापी हूं, तुम बहुतसे अच्छे आचरणोंको पालते हो, मैं दुराचारी हूं, तुम दाता हो, मैं याचक हूं, तुम शत्रुवोंको भय उत्पन्न करनेको समर्थ हो, मैं भयभीत होने योग्य हूं, मैं मूर्ख हूं, तुम बुद्धिमान् हो, तुम स्तुतिके योग्य हो, मैं स्तुति करनेवाला हूं, तुम विवेकी हो, मैं अविवेकी हूं, तुम सुवक्ता हो, विशेष क्या ? तुम स्वामी हो मैं सेवक हूं, तुम रक्षक हो मैं रक्ष्य है। इसलिये मेरी रक्षा करना तुम्हारा धर्म हैं । हे राजन् । तुम्हारा कर्तव्य पालन कर तुम यथेष्ट पुण्य संपादन करी ।। ९९ ।।
धर्मागसां शुभान्येव कर्माणीश विशति न ।
यथा संयमिनश्चैतेष्वारिष्टांदिशवालयान् ॥ १० ॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार संयमीजन जिस घर में कुत्ता धुसगया है, जहां प्रसूति होगई है, कौआ जिस घरमें घुसगया है, चाण्डालने जिस घर में प्रवेश किया है ऐसे घरमें प्रवेश नहीं करते हैं उसी प्रकार धर्मापराधी अर्थात् देवधर्म और राजधर्मके विरोध में चलने वालोके घर शुभ क्रिया