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दानशासनम्
पदार्थोंका दान देनेसे वैर और व्याधिका नाश होता है । पापका नाश और पुण्य और दयाकी वृद्धि होती है । पंचभूत वश होते हैं । शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, कोई बंधु बन जाते हैं। कोई धर्मकार्यों में अनुकूल बन जाते हैं, कोई धर्माचरण करने लगजाते हैं। कोई धार्मिक और सम्यग्दृष्टि बनाते हैं । कोई अंतःकरणशुद्धवाले गुरु बन जाते
हैं ॥ ३ ॥
सत्पात्रदानमनघं कुरुते सुपुण्यं पापं निर्हति सरुजं सकळांतरायं ॥ स्वर्गादिजातमयं च सुखं ददाति । तस्मिन्गृहे क्षरति रत्न हिरण्यवृष्टिं ॥ ४ ॥
अर्थ - निर्दोष सत्पात्रदान पुण्यकी वृद्धि करता है, पापको नाश करता है, स्वर्गादिमें उत्पन्न अक्षय सुखको उत्पन्न करता है, इतनाही नहीं उस घर में रत्नवृष्टि सुवर्णवृष्टिको भी करता है ॥ ४ ॥
सत्पात्रदानैर्भुवनत्रयेऽपि प्रोद्दीप्तकीर्तिद्युतिपूर्ण लेोकान् । जैनेंद्रभक्तानभिवृद्धसै। ख्यान् शंसंति देवाश्च नराश्च नागाः ५ अर्थ — सत्पात्रदान के द्वारा जिनका कीर्तिसूर्य तीन लोक में फैल गया है, जिनकी जिनभक्ति वृद्धिंगत होगई है, सुख जिनका बढ गया है। ऐसे भव्योंकी देवेंद्र चक्रवर्ति और नागेंद्र भी प्रशंसा करते हैं ॥ ५ ॥
शांतां-गुप्तियुतान भग्नचरितान् जैनेषु नीचान्यथा । दातृन्वीक्ष्य जना नमंति रिपवो निर्णाशयंतः स्वयम् । नश्यति क्षितिपास्तरक्षुभुजगाः क्रूरा प्रशांताशया नो पश्यन्ति हितं वदति मनुजाः सेवां सदा कुर्वते ||६||
१ अज्ञानी क्षपयेत्कर्म यज्जन्मशतकोटिभिः तदज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा नित्यं तर्मुहूर्ततः ॥