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विषयानुक्रमणिका
पृष्ठ श्लोक १३८ जिनोत्सवमें विघ्न डालनेसे तीव्र पापबंध होता है ६५ ११५ १३९ धर्म संकटोंको दूर करना राजाका धर्म है ६५ ११३ १४० जिनधर्म प्रभावनामें विघ्न डालनेका फल ६६-६७ ११४-११८ १४१ दूसरेका धन अपहरण करनेका फल ६७ ११९ १४२ जिनपूजनार्थ प्रदत्तद्रव्यमें कम नहीं करें ६८ १२० १४३ जिनालयके लिये प्रदत्तद्रव्यका अपहरण न करें ६८ १२१-१२२ १४४ जिनमंदिर आदि फोडनेका फल
६९ १२३ १४५ अल्पद्रव्य देकर मंदिरके ग्राम खेत आदि को
नहीं खरीदना चाहिए. १४६ धनिक रक्खे हुए गरीबोंके धनको नहीं लेवें ७० १२५ १४७ स्वाश्रितप्राणियोंकी रक्षा करनी चाहिए । ७० १२६ १४८ भावरहितकायचेष्टा आत्मकल्याणकारी नहीं है ७० १२७ : १४९ धर्मसे उत्पन्न धनको धर्म कार्यमें ही लगाना चाहिए ७१ १२८ १५० धर्मादिकी निंदा करनेवाले मोक्षके पात्र नहीं होते ७१ १२९ १५१ सद्गोत्री व जिनयोगियोंकी निंदा करनेका फल ७२ १३०-३१ १५२ कामार्थी व धनार्थियोंकी मित्रता किन २ से होती है ७२ १३२ .१५३ क्रोधोंके समान वेश्यागामी अहित कर लेता है ७३ १३३ १५१ गृहमें अकेली स्त्रीको नहीं रहनी चाहिए ७३ १३४ . १५५ पापीके हृदय में गुरूपदेश ठहर नहीं सकता है ७४ १३५ . १५६ अच्छे बुरे कार्य के लिए काल लब्धिकी - आवश्यकता.
७४-७५ १३६-३७ १५७ गुरुक्रमोल्लंघनका निषेध
७६ १३८ ' १५८ निजवंशधर्मपरंपराको उलंघने का निषेध ७६ १३९ . १५९ वीतरागी साधुओं को कभी कष्ट नहीं पहुंचावे ५७ १४० १६० पंचमकाल में मुक्ति क्यों नहीं है ? ७७ : १४१