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दानशासनम्
आचार्यके उपदेशके अभ्यास करनेवाले शिष्यका भी आचार पवित्र होजाता है । उसकी भी मुनिगण प्रशंसा करते हैं। पिताके उपदेश का अभ्यास करनेवाला पुत्र बुदिमान होकर धीर वीर व लक्ष्मीसंपन होता है एवं अपने स्वामीके उपदेशको अभ्यास करनेवाला सेवक भी बुद्धिमान् होकर धीर, वीर व लक्ष्मीसंपन्न होता है ॥ ५६ ॥
मुस्ताकंदानंतमूलानि वर्षाकाळे भूमि व्याप्नुवंतीव बहीं । ग्रीष्मे लीनानीव केषां दृशोऽस्मिन्
काले काले संळयत्युद्भवंति ॥ ५७ ॥ अर्थ-मुस्ताकंद जो अनंतकाय है, वर्षाकालमें पैदा होते हैं और प्रीष्मकालमें नष्ट होते हैं, इसी प्रकार कोई सग्यग्दृष्टियोंके परिणाम पुराणश्रवण, मुनिदर्शन, देवदर्शन आदि समयमें तो श्रद्धायुक्त रहते है। और अन्य क्रोधादिक उत्पत्तिके समयमें वैसे परिणाम विलय हो जाते हैं॥ ५७॥
शियोकंद इवाक्षयोऽवनिगतो वर्षाबुनोत्पद्यते । निर्वृष्टिर्न च हानिरंघ्रिवपुषोरीषद्धहिर्वा भवेत् ॥ वाद्यांगस्य हतिर्न मूलविलयो मूलक्षयं मा कृथाः ।
सदृष्टेर्जिननायसैन्यहृदयक्षोभं सदा मा कुरु ॥ ५८ ॥ अर्थ--परंतु शिग्रुकंद वर्षाकालमें भी उत्पन्न होता है और वर्षा नहीं रहनेपर उसे कोई हानि भी नहीं होती । अन्य समय में भी वह नष्ट नहीं होता। कदाचित् गाय वगैरह उसे खा डाले तो भी जमीनसे बाहर निकला है उतने भागको ही खा सकती हैं अंदर से मूलोच्छेदन नहीं हो सकता है। अंदर अंकुर बना ही रहता है । इसी प्रकार बाह्य शरीरकी कुछ बाधा होनेपर भी अंतरंग सम्यग्दर्शन को मूलसे उच्छेदन नहीं होने देना चाहिए एवं जिनेंद्रभगवंतकी